हर नदी कुछ कहती है, जानिए उनकी कहानी हमारी जुबानी





काका कालेलकर के नाम से चर्चित गांधीवादी समाज सुधारक दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर ने आजादी से पूर्व और उसके आसपास हिमालय से निकलने वाली नदियों के संदर्भ में काफी कुछ लिखा है। जीवनदायिनी नदियों पर केंद्रित उनके आलेख आज से हम क्रमिक रूप से प्रस्तुत करने जा रहे हैं:- पार्वती और सरोजा





चंद नदियां पहाड़ों से निकलती हैं और चंद सरोवरों से निकलकर बहने लगती हैं। पर्वतों से जन्म पानेवाली नदियों को पार्वती या शैलजा कहते हैं। जो सरोवरों से जन्म लेती हैं, वे हैं सरोजा। हिमालय के उस पार दो बहुत बड़े और अत्यंत पवित्र सरोवर हैं। एक का नाम है मानस-सरोवर, दूसरे का राकसताल या रावण-हृद। इन सरोवरों से निकलनेवाली नदियों को सरोजा ही कहना पड़ेगा।





देखा जाए तो हिमालय की सभी नदियों को पार्वती नाम दिया जा सकता है। नदियां यानी अप्सरा। पहाड़ों से अप् यानी पानी जब सरने लगता है, यानी बहने लगता है, दौड़ने लगता है, तब उस प्रवाह को जिस तरह हम आप-गा या नदी कहते हैं, उसी प्रकार उसे 'अप्सरा' कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है। पार्वती और सरोजा अप्सराओं के दो स्वतंत्र कुल कहे जा सकते हैं। 





हिमालय कहते ही जिस तरह गंगा और यमुना ये दोनों प्रमुख नदियां पहले ध्यान में आती हैं, उसी प्रकार हिमालय का आदरपूर्वक चक्कर काटकर, हिमालय के उत्तर की तरफ का सारा पानी, एक बूंद भी बेकार न जाने देने तथा दक्षिण की ओर हिंदुस्तान में लाकर छोड़ने वाली इन नदियों का भी स्मरण हुए बिना नहीं रहता। इन्हें नदियों के बजाय नद कहना ठीक रहेगा। 





सिंधु और ब्रह्मपुत्र- ये दो नद मानस-सरोवर और रावण-हृद के परिसर में से निकलकर दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहने लगते हैं। सिंधु-नद पश्चिम की ओर जाकर, हिमालय का चक्कर काटकर, हिंदुस्तान में ही (अब पाकिस्तान में) दक्षिण की ओर बहने लगता है। ब्रह्मपुत्र, जिसका तिब्बती नाम 'सांग्पो' है, पूर्व तरफ दूर तक दौड़ लगाकर फिर एक गहन कांतर (अरण्य) में प्रवेश करता है और असम में प्रकट होता है। यह प्रदेश सचमुच देखने लायक है। 





हाथ की उंगलियां फैलाने पर उनका जिस प्रकार पंखे का आकार बनता है, उसी प्रकार असम प्रदेश में सदिया गांव के आसपास लोहित, डिहंग, सुबनसेखी आदि अनेक नदियों के प्रवाह, पंखे की उंगलियों के समान, ब्रह्मपुत्र में आकर मिलते हैं।





वहां पंजाब की तरफ स्वात, क्रुमू (काबुल) आदि नदियों का पानी साथ लेकर सिंधुनद पंजाब में प्रवेश करता है और फिर कश्मीर या मिट्टनकोट तक झेलम, चिनाब, रावी, व्यास और सतलज नदियों के पानी से बनने वाला पंचनद कब आकर अपने सतलज इन नदियों के पानी से बननेवाला पंचनद कब आकर अपने में समा जाता है, इसकी राह देखता दौड़ता है। यह संगम भी अद्भुत रम्य है। आज हमने सिंधु और ब्रह्मपुत्र दोनों नाम स्त्रीलिंग बना दिए हैं और ब्रह्मपुत्र को 'ब्रह्मापुत्रा' कहने लगे हैं।





कुछ भी हो, इतने बड़े प्रचंड हिमालय को मानो अपने भुजपाश में लेने के लिए भारतमाता ने सिंधु और ब्रह्मपुत्र, ये अपने दो बाहु लंबे फैलाकर सिर एकमेक कर जोड़ दिए हैं। उनके इस भव्य काव्य का चिंतन करते मानवीय मन करीब-करीब समाधिस्थ हो जाता है। सिंधु और ब्रह्मपुत्र -ये प्रौढ़ कन्यकाएं हिमालय का चक्कर काटती हैं। इसके विपरीत उनकी दो अल्हड़ लड़कियां कहती हैं, "हम आदर-वादर कुछ नहीं जानतीं। हमें हिमालय के उस पार का जल लेकर हिंदुस्तान में प्रवेश करना है। पिताजी को हमें राह देनी ही पड़ेगी।"





छोटी और लाडली लड़कियां हमेशा शरीर (ऊधम मचाने वाली) ही होती हैं। उन्होंने अपना सीधा मार्ग ढूढ़ निकालकर, वृद्ध हिमालय को बिल्कुल आर-पार छेदकर, दक्षिण की तरफ आने का निश्चय किया। अपत्य-वत्सल हिमालय करता भी क्या? उनकी बात मान गया और दबकर उसने लड़कियों को राह दे दी। सतलज और घाघरा ही हैं वे दो लड़कियां। इनका उद्गम भी मानस-सरोवर और रावण हृद के परिसर में ही होता है। घाघरा को ही 'रामायण' में सरयू कहा गया है। इसका उद्गम भी उसके नाम के अनुसार सम्भवत: किन्ही सरोवरों में से ही हुआ है।





मैंने हिमालय क्षेत्र का सारा प्रदेश किसी न किसी समय आंखभर देख लिया है। हिमालय के वाक्य में अबट्टाबाद और कश्मीर-श्रीनगर से लेकर ठेठ उत्तर-पूर्व की तरफ सदिया और परशुराम कुंड तक का सारा प्रदेश मैंने अपनी आंखों से देख लिया है। जहां मेरे पैर या आंखें पहुंच नहीं पाईं, वहां कल्पना की मदद से विहंगावलोकन किया है और अब तो इस काम में फोटोग्राफी की उत्कृष्ट सहायता होती रहती है। इस प्रदेश में असंख्य नदियां वक्र गतियों से बहती रहती हैं। जगह न मिले या बहुत संकरी हो, तो वह कुछ ऐसी चिढ़ जाती हैं कि उनका वह हुलिया देखकर दिल में प्रेम ही उमड़ आता है!





समतल भूमि पर आहिस्ता, बिल्कुल शांति से बहने वाली नदियां हिंदुस्तान में असंख्य हैं। उनकी शोभा अलग प्रकार की है। उनका दर्शन करने के लिए हमें किसान की दृष्टि धारण करनी चाहिए और जरूरत के मुताबिक छोटी-बड़ी नहरें निकालने का पुरुषार्थ भी करना चाहिए; लेकिन हिमालयीन नदियों की बात अलग है। उनके किनारे पहुंचकर उनके पवित्र जल का आचमन करने के लिए भी 200-400 फुट नीचे उतरना पड़ता है। फिर, कहां की खेती और कहां की नहरें!





कोई ऐसा न मान बैठे कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना, सरयू और सतलज के नाम लेने पर हिमालय की मुख्य नदियां पूरी हुईं। बिहार की पुरानी और नई दो नदियों-गंडक और तूफानी कोसी - इनका नाम भी आदर के साथ ही लेना पड़ता है, लेकिन मेरी अत्यंत प्रिय नदी है तीस्ता। यह नदी सिक्किम की तरफ के कांचन-जोंगा या पंचहिमाकर पर्वत के हिम-प्रपात से बनती है और दक्षिण की तरफ बहते-बहते ब्रह्मपुत्र में आ मिलती है। इसमें आकर मिलने वाली रंगपो और रंगीत आदि अनेक नदियों के संगम मैंने देखे हैं।





नदियों का संगम यानी दो भिन्न रंगों का विलास। यह बात मानो निश्चित ही हो गई है। दो नदियों का जल एकमेक से मिल जाने से पहले बहुत समय तक खेल करता रहता है। गंगा-यमुना के मिलनोत्सव का वर्णन कालिदास ने इतना लंबा-चौड़ा किया है कि हमें महसूस होने लगता है कि मानो हम एक नदी में ही तैर रहे हों।





गंगा के बारे में भारतीयों की भक्ति ध्यान में रखकर हम उसे भारतमाता कहते हैं, लेकिन वास्तव में वह भारतीयों के पुरुषार्थ से बनी हुई भारतकन्या है। गंगा, यानी भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी आदि अनेक प्रवाहों के अनेक संगम। हरेक संगम को 'प्रयाग' कहा जाता है। ऐसी गंगा का जब यमुना के साथ संगम होता है, तब उस स्थान को हमारे पुरखाओं ने प्रयागराज का गौरवपूर्ण नाम दिया है।





हमारी नदियां- यानी हमारा पौराणिक इतिहास और इतिहास-कालीन पुरुषार्थ। हिमालय की तमसा का नाम लेते ही विश्वमित्र का स्मरण होगा ही। यमुना कहते ही वृंदावन-विहारी श्रीकृष्ण और कुरुक्षेत्र पर गीतागायक जगद्गुरु उभय विभूतियों का स्मरण होना अपरिहार्य है। 





सरयू, यानी प्रभु रामचंद्र की करुण कथा। सप्तसिंधु के किनारे वैदिक आर्यो ने महान पुरुषार्थ किए। युद्ध और यज्ञ उनके पुरुषार्थ की दो धाराएं थीं और गंगा तो भागीरथ से लेकर ठेठ कबीर तक भारतीय संस्कृति के सब प्रतिनिधियों की प्रवृत्तियों का प्रवाह। बिलकुल दूर उत्तर-पूर्व ईशान में लोहित ब्रह्मपुत्र के उद्गम के पास जाने पर वहां परशुराम का कुंड देखने को मिलता है। 





जब इक्कीस बार ब्राह्मण-क्षत्रियों का आत्मघातक झगड़ा चला, पर थक जाने के बाद इस स्थान पर परशुराम के हाथ से उसकी कुल्हाड़ी छूट गई और उसको शांति मिली। गीता का उपदेश सुनानेवाली यमुना के किनारे शांति का वही पाठ गांधीजी के बलिदान के रूप में आज हमें सुनाई देता है।





हिमालय के हिमधवल शिखरों ने शांति का जो सूचन किया, उसे ही ऋषि-मुनियों ने हिमालय के अपने आश्रमों में बैठकर किए हुए चिंतन में विकसित किया और उसी निर्वैरता के, अहिंसा के संदेश को अनेक युद्धों के अंत में भारतीयों ने अपने विषादपूर्ण अंत:करणों में अनुभव किया। हिमालय की सब नदियां इस विविध शांति की साक्षी हैं और हमें अपना इतिहास सिद्ध शांति-गीत अखंड रूप से सुना रही हैं।


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