दानव गुरु शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत जैसे ग्रंथों में कई कथाएं वर्णित हैं। शुक्राचार्य भृगु महर्षि के पुत्र थे। देवताओं के गुरु बृहस्पति अंगीरस के पुत्र थे। इन दोनों बालकों ने बाल्यकाल में कुछ समय तक अंगीरस के यहां विद्या प्राप्त की। आचार्य अंगीरस ने विद्या सिखाने में शुक्र के प्रति विशेष रुचि नहीं दिखाई। असंतुष्ट होकर शुक्र ने अंगीरस का आश्रम छोड़ दिया और गौतम ऋषि के यहां जाकर विद्यादान करने की प्रार्थना की। गौतम मुनि ने शुक्र को समझाया, "बेटे! इस समस्त जगत् के गुरु केवल ईश्वर ही हैं। इसलिए तुम उनकी आराधना करो। तुम्हें समस्त प्रकार की विद्याएं और गुण स्वत: प्राप्त होंगे।"
गौतम मुनि की सलाह पर शुक्र ने गौतमी तट पर पहुंचकर शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने प्रत्यक्ष होकर शुक्र को मृत संजीवनी विद्या का उपदेश दिया। शुक्र ने मृत संजीवनी विद्या के बल पर समस्त मृत राक्षसों को जीवित करना आरंभ किया। परिणामस्वरूप दानव अहंकार के वशीभूत हो देवताओं को यातनाएं देने लगे, क्योंकि देवता और दानवों में सहज ही जाति-वैर था। फलत: देवता और दानवों में निरंतर युद्ध होने लगे।
मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती ही गई। देवता असहाय हो गए। वे युद्ध में दानवों को पराजित नहीं कर पाए। देवता हताश हो गए। कोई उपाय ने पाकर वे शिव जी की शरण में गए, क्योंकि शिव जी ने शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या प्रदान की थी। इसलिए देवताओं ने शिव जी से शिकायत की, "महादेव! आपकी विद्या का दानव लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। आप तो समदर्शी हैं। शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से मृत दानवों को जिलाकर हम पर भड़का रहे हैं। यही हालत रही तो हम कहीं के नहीं रह जाएंगे। कृपया आप हमारा उद्धार कीजिए।"
शुक्राचार्य द्वारा मृत संजीवनी विद्या का इस प्रकार अनुचित कार्य में उपयोग करना शिव जी को अच्छा न लगा। शिव जी क्रोध में आ गए और शुक्राचार्य को पकड़कर निगल डाला। इसके बाद शुक्राचार्य शिव जी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने निज रूप को प्राप्त किया।
शुक्राचार्य के संबंध में एक और कथा इस प्रकार है-शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी से शुक्राचार्य की करनी की शिकायत की। शुक्राचार्य को जब विदित हुआ कि उनके विरुद्ध शिव जी तक शिकायत पहुंच गई, वे डर गए और शिव जी के क्रोध से बचने के लिए झाड़ियों में जा छिपे। आखिर वे इस तरह शिव जी की आंख बचाकर कितने दिन छिप सकते थे।
एक बार शिव जी के सामने पड़ गए। शिव स्वभाव से ही रौद्र हैं। शुक्राचार्य को देखते ही शिव जी ने उनको पकड़कर निगल डाला। शिव जी की देह में शुक्राचार्य का दम घुटने लगा। उन्होंने महादेव से प्रार्थना की कि उनको शिव जी की देह से बाहर कर दें। शिव जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने रोष में आकर अपने शरीर के सभी द्वार बंद किए। अंत में शुक्राचार्य मूत्रद्वार से बाहर निकल आए। इस कारण शुक्राचार्य पार्वती-परमेश्वर के पुत्र समान हो गए।
शुक्राचार्य को बाहर निकले देख शिव जी का क्रोध पुन: भड़क उठा। वे शुक्राचार्य की कुछ हानि करें, इस बीच पार्वती ने परमेश्वर से निवेदन किया, "यह तो हमारे पुत्र समान हो गया है। इसलिए इस पर आप क्रोध मत कीजिए। यह तो दया का पात्र है।" पार्वती की अभ्यर्थना पर शिव जी ने शुक्राचार्य को अधिक तेजस्वी बनाया।
अब शुक्राचार्य भय से निरापद हो गए थे। उन्होंने प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती के साथ विवाह किया। उनके चार पुत्र हुए-चंड, अमर्क, त्वाष्ट्र और धरात्र।
एक कथा शुक्राचार्य के संबंध में इस प्रकार है- एक बार वामन ने राजा बलि के पास जाकर तीन कदम रखने की पृथ्वी मांगी। यह समाचार शुक्राचार्य को मिला। उन्होंने राजा बलि को समझाया, "राजन! सुनो। आपसे तीन कदम जमीन मांगनेवाले व्यक्ति नहीं हैं, वे नर भी नहीं। भूल से भी सही, उनको एक कदम रखने की जमीन तक मत देना। नीतिशास्त्र बताता है कि वारिजाक्ष, विवाह, प्राण, मान तथा वित्त के संदर्भ में झूठ बोला जा सकता है, इसलिए मेरी सलाह मानकर याचक को जमीन का दान देने से अस्वीकार करो।"
शुक्राचार्य ने राजा बलि को इस तरह अनेक प्रकार से समझाया, परंतु राजा बलि अपने वचन के पक्के थे, साथ ही ज्ञानी भी। इसलिए उन्होंने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "यदि याचक नर न होकर नारायण ही हों तो और अधिक उत्तम। यदि उनके हाथों में मेरा कुछ अहित भी होता है, तो वह मेरा भाग्य ही माना जाएगा। इसलिए ऐसे सुअवसर से मैं वंचित होना नहीं चाहता। मैं अपने वचन का पालन हर हालत में करना चाहूंगा।" यह कहकर राजा बलि ने प्रसन्नतापूर्वक वामन को तीन कदम रखने की भूमि दान कर दी।
इससे दानवाचार्य शुक्र चिंता में पड़ गए। उन्होंने संकल्प किया कि किसी प्रकार से राजा बलि का उपकार करना चाहिए। यह विचार करके वे मक्खी का रूप धरकर कमंडल की टोंटी से जलधारा के गिरने से अटक गए। टोंटी से जल के न गिरते देख राजा बलि ने तीली लकेर कमंडल की टोंटी में घुसेड़ दिया। तीली मक्खी की आंख में चुभ गई और आंख फूट गई। परिणामस्वरूप दानवाचार्य शुक्र काना बन गए। तब से दानवाचार्य काना शुक्राचार्य कहलाए।
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