जिज्ञासा प्रश्न को जन्म देती है, प्रश्न उत्तर की अपेक्षा करता है। जिज्ञासु अपनी शंका के निवारण के लिए समाधान के द्वार पर दस्तक देता है। ज्ञानी और शिष्य का संवाद ज्ञान का अक्षय भंडार बनकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित होता है। मैत्रेय और मुनि पराशर के मध्य जीव, जगत और ब्रह्म को लेकर जो संवाद हुआ, वही विष्णु पुराण का संकलित रूप है। मनुष्य संसार मे जन्म लेता है, जीता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसा क्यों होता है। क्या वह अमर नहीं बन सकता? यह प्रश्न अनादिकाल से अनुत्तरित ही रहा। इसका समाधान पाने को मैत्रेय पराशर मुनि से प्रश्न करते हैं।
पराशर उत्तर देते हैं, "वत्स मैत्रेय, सृष्टि, स्थिति और लय-क्रमश: जन्म, अस्तित्व और मृत्यु के प्रतीक हैं। इनका आवर्तन अवश्यंभावी है। इस त्रिगुणात्मक रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व तुम्हें काल-ज्ञान का परिचय पाना होगा।" उन्होंने कहा, ध्यान से सुनो, "मनुष्य के एक निमष यानी पलक मारने का समय एक मात्र है। पंद्रह निमेष एक काष्ठा कहलाता है। तीस काष्ठा एक कला है। पंद्रह कलाएं एक नाडिका है, दो नाडिकाएं एक मुहूर्त, तीस अहोरात्र एक मास होता है। बारह मास एक वर्ष होता है। मानव समाज का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र होता है। तीन सौ आठ वर्ष एक दिव्य वर्ष कहलाता है। बारह हजार दिव्य वर्ष एक चतुर्युगी (कृत त्रेता, द्वापर और कलियुग) होता है। एक हजार चतुर्युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसी को कल्प कहते हैं। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प में प्रलय होता है। इसको नैमित्तांतक प्रलय कहते हैं। प्रलय तीन प्रकार के होते हैं : नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यंतिक। इन प्रलयों का वृत्तांत मैं आगे सुनाऊंगा।' "
मैत्रेय ने पूछा, "गुरुदेव, आपने कहा था कि सतयुग में ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं और कलियुग में संहार करते हैं। मैं सर्वप्रथम कलियुग का वृत्तांत सुनना चाहता हूं, इसके स्वरूप का विवेचन कीजिए।"
मुनि पराशर थोड़ी देर के लिए विचारमग्न हुए, फिर बोले, "मैत्रेय, कलियुग में वर्णाश्रम धर्मो का याने ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का पालन न होगा। विधिपूर्वक धर्मबद्ध विवाह न होगे। गुरु और शिष्य का समबंध टूट जाएगा। दाम्पत्य जीवन में दरारें पड़ेंगी। पति-पत्नी के बीच कलह होंगे। यज्ञ-कर्म लुप्त हो जाएंगे। बलवान लोग निर्बलों पर अधिकार करेंगे। अत्याचार और अन्यायों का बोलबाला होगा। धनी वर्ग सभी जातियों वाली कन्याओं से विवाह करेंगे। अपने पापों को धोने के लिए गुरु से दीक्षा लेंगे और प्रायश्चित करवा लेंगे। छद्म वेषधारी गुरुओं के मुंह से जो शब्द निकलेंगे, वे ही शास्त्र माने जाएंगे। क्षुद्र देवताओं की पूजा होगी। आश्रमों के द्वार सब लोगें के लिए खुले रहेंगे। उपवास, तीर्थ-यात्रा, दान-पुण्य, पुराण-पाठ उत्तम धर्म के लक्षण माने जाएंगे।"
यह कहकर पराशर मुनि पल भर मौन रहे, फिर बोले, "और सुनो, कलियुग की अनंत महिमा। स्त्रियां अपने केश-विन्यास पर अभिमान करेंगी। विविध प्रकार के प्रसाधनों से अपने को अलंकृत करेंगी। रत्न, मणि, मानिक, स्वर्ण और चांदी के बिना अपने बालों को संवारेंगी। दरिद्र पति को त्याग देंगी। अधिक-से-अधिक धन देनेवाले पुरुष को वे अपना पति मानेंगी। वही उनका स्वामी होगा। कुलीनता पर नारी-पुरुष का संबंध नहीं जुड़ेगा। स्त्रियों में स्वेच्छाचारिता बढ़ जाएगी। वे सुंदर पुरुष की कामना करेंगी। भोग-विलास को अपने जीवन का लक्ष्य मानेंगी।"
अब पुरुषों का वृत्तांत सुनो, "पुरुष थोड़ा-सा धन पर अभिमान करेगा। धन जोड़ने की प्रवृत्ति पुरुष वर्ग में बढ़ जाएगी। वे अपना धन सुख भोगने में पानी की तरह बहाएंगे। गृह-निर्माण में सारा धन खर्च करेंगे। अन्यायपूर्वक धन कमाने की चेष्टा करेंगे। उत्तम कार्यो में धन खर्च करने से विमुख होंगे। स्वार्थ की वृत्ति बढ़ेगी और परोपकार की भावना लुप्त हो जाएगी! संक्षेप में समझाना हो तो यही कहना चाहूंगा कि पैसे में परमात्मा के दर्शन करेंगे।"
पराशर के अनुसार, सामाजिक दशा बद से बदतर होती जाएगी। जाति-पांति के भेद-भाव मिट जाएंगे। शूद्र अपने को ब्राह्मण वर्ग के बराबर मानेंगे। दूध देनेवाली गायों का ही संरक्षण होगा। धन-धान्य की स्थिति क्या बताई जाए। समय पर वर्षा न होगी। सर्वत्र अकाल का तांडव होगा। सूखा पड़ने से लोग भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। कंद, मूल और फलों से पेट भरने का प्रयास करेंगे। जनता दुख, दरिद्रता और रोगों का शिकार होगी। पौष्टिक आहार के अभाव में लोग अल्पायु में ही बूढ़े हो जाएंगे। पिंडदान न होगा, स्त्रियां अपने पति और बुजुर्गो के आदेशों का पालन नहीं करेंगी। रीति-रिवाज मिट जाएंगे। स्त्रियां झूठ बोलेंगी। दुराचारिणियां होंगी। ब्रह्मचारी यम-नियम का पालन नहीं करेंगी। वानप्रस्थी नगर का भोजन पसंद करेंगे। साधु-संन्यासी अपने स्नेहीजनों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करेंगे।"
ऐसी स्थिति में राजा-प्रजा की बात क्या होगी, सुन लो, "कलियुग की अपार महिमा यह है कि राजा कर वसूली के बहाने प्रजा को लूटेंगे। मुसीबत में फंसी प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे। गुंडे और चरित्रहीन लोगों का राज्य होगा। जो अपने पास ज्यादा रथ, हाथी और घोड़े रखता है, वही राजा माना जाएगा। विद्वान पुरुष और सज्जन धनहीन होने के कारण सेवक माने जाएंगे। वणिक वर्ग कृषि और वाणिज्य त्याग यकर शिल्पकारी होंगे। वे भी शूद्र वृत्ति से अपना भरण-पोषण करेंगे। पाखंडी लोग साधु-संन्यासी के वेष में भिक्षाटन करेंगे। वे समाज द्वारा सम्मानित होकर सर्वत्र पाखंड फैलाएंगे। राजा के द्वारा कर बढ़ाया जाएगा। कर-भार और अकाल से पीड़ित होकर लोग ऐसे देशों की शरण लेंगे जहां गेहूं और ज्वार ज्यादा पैदा होता है।"
"वत्स! अब तम्हें कलियुगीन धर्म की बात सुनाता हूं, "वैदिक धर्म नष्ट हो जाएगा। पाखंड का साम्राज्य फैलेगा। शास्त्र विरुद्ध तप और राजा के कुशासन से अधिक संख्या में शिशुओं की मृत्यु होगी। प्रजा की आयु घट जाएगी। सात-आठ वर्ष की बालिका और दस-बारह वर्ष आयु के बालक की संतान होगी। बारह वर्ष की उम्र में बाल पकने लग जाएंगे। पूर्णायु बीस वर्ष की होगी। प्रजा की बुद्धि मंद पड़ जाएगी। दृष्टि दोष होगा।"
"गरुदेव, आपने कलियुग के लक्षण बताए, पर कलियुग के आगमन की पहचान कैसे हो? इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।" मैत्रेय ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
मुनि पराशर ने मंदहास करके कहा, "संसार में धर्म के लुप्त होने के साथ ही सर्वत्र युद्ध, हिंसा, अत्याचार, दुराचार, पाखंड आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएंगे। इन लक्षणों को देख बुद्धिमान लोग समझ जाएंगे कि अब कलियुग अपने परे उत्कर्ष पर है। हां, उस हालत में पाखंडी लोग यह प्रश्न जरूर करेंगे कि देवताओं की पूजा और वेदाध्ययन से लाभ ही क्या है। सुनो, कलियुग के उत्तरार्ध में प्रकृति और मानव चरित्र में कैसे-कैसे परिवर्तन लक्षित होते हैं।"
"वर्षा कम होगी। अनाज कम होगा। फलों का रस फीका पड़ जाएगा। लोग सन के कपड़े पहनेंगे। चातुर्वर्णी लोग शूद्रों जैसा आचरण करेंगे। अनाज के दाने छोटे होंगे। गायों के दूध के स्थान पर बकरियोंके दूध का प्रचलन होगा।"
"वत्स! कलियुग का महत्व कहां तक कहा जाए। परिवार में माता-पिता, भाई-बंधु, गुरुजनों के स्थान पर सास-सुसर, पत्नी और साले का प्रभुत्व होगा। स्वाध्याय समाप्त होगा। धर्म टिमटिमाते दीप के समान अल्प मात्रा में रह जाएगा। एक रहस्यपूर्ण बात सुन लो-इन सारी विकृतियों के बावजूद कलियुग की अपनी विशेष महिमा है। कृत युग में जहां जप, तप, व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान-पुण्य, सदाचरण और सत्यकर्मो से जो पुण्य प्राप्त होता था, वह कलियुग में थोड़े से प्रयत्न से ही संभव होगा।"
मैत्रेय ने विस्मय में आकर पूछा, "सो कैसे? कलियुग तो समस्त दुष्कृत्यों से भरा हुआ है।" महर्षि परासर मंदहास करके बोले, "सुनो, तपस्वियों में एक बार चर्चा चली। अल्प पुण्य के संपादन से महान फल की प्राप्ति कब होती है? और उसका कारक कौन होता है?" परस्पर विचार-विनिमय के उपरांत भी वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। अंत में यह निर्णय हुआ कि महर्षि व्यास से इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करें। जब वे महर्षि के समीप पहुंचे तब व्यासजी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। सभी मुनि गंगा के किनारे खड़े रहे। व्यासजी ने गंगाजल में एक बार गोता लगाया, जल से ऊपर उठते हुए बोले, "कलियुग श्रेष्ठ है।" फिर दूसरा गोता लगाया, कहा, "हे शूद्र, तुम्हीं श्रेष्ठ हो।" तीसरी बार डुबकी लगाकर बोले, "स्त्रियां धन्य हैं! साधु। साधु।"
मुनि आश्चर्यचकित हो देखते रह गए। व्यासजी नहा-धोकर किनारे आए, तब मुनियों के आगमन का कारण पूछा, मुनियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहा, "महर्षि। वैसे हम लोग आपसे एक शंका का समाधान करने आए, परंतु इस समय हम आपके इस कथन का आशय जानने को उत्सुक हैं। स्नान करते समय गोते लगाते हुए आपने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को श्रेष्ठ बताया। यह कैसे संभव है?"
व्यासजी ने गंभीर होकर कहा, "कृत युग में दस वर्ष तक जप, तप उपवास आदि करने पर जो फल मिल सकता है वह त्रेतायुग में एक ही वर्ष में प्राप्त होता है। द्वापर युग में एक महीने में और कलियुग में एक ही दिन में प्राप्त होगा। कृतयुग में ध्यान योग से जो पुण्य हो सकता है, वहीं कलियुग में केवल श्रीकृष्ण-विष्णु का नाम-स्मरण मात्र से प्राप्त होता है। इसलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया। द्विजवर्ग धर्म च्युत होकर अनर्गल वार्तालाप, अनायास भोजन पाकर पतन के मार्ग पर होंगे। उन्हें संयम का पालन करना होगा। अन्न उपजानेवाला वर्ग द्विजों की सेवा करके यानी थोड़े परिश्रम से पुण्य-संपादन करके मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसलिए मैंने शूद्र को श्रेष्ठ कहा।"
"स्त्रियां तो कलियुग में पति की सेवा करके परलोक को प्राप्त कर सकती हैं। इस कारण से मैंने स्त्रियों को श्रेष्ठ और साधु! साधु! कहा। मैं समझता हूं कि अब आप लोगों की शंका का समाधान हो गया होता ।" ये शब्द कहकर महर्षि अपनी कुटी की ओर चल पड़े। मुनि वृंद महर्षि व्यासजी के दर्शन और उनकी वाणी से प्रसन्न हुए। उनकी पूजा करके अपने-अपने निवास को लौट गए।
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