मुम्बई
में सेंट थॉमस के बड़े चर्च में प्रवेश करते ही दीवारों पर स्मृति
पट्टियां और स्मारक नजर आते हैं जो हमें दो सौ साल पीछे ले जाते हैं, जब
मुम्बई में पहले व्यापारी और फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी आकर बस गई थी। कम्पनी
ने मुम्बई द्वीप को किंग चार्ल्स द्वितीय से प्रतिवर्ष 10 पौंड की दर से
भाड़े पर लिया था। किंग की पत्नी को यह द्वीप दहेज के एक अंश के रूप में
मिला था।
उन सुखमय दिनों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कारखानों के अध्यक्ष सर जेराल्ड
आंगियर वस्तुत: मुम्बई के शासक थे। उन्होंने किलेबंदी जैसी सुरक्षा प्रदान
की और मजबूत गैरिसन बल द्वारा सैनिक विद्रोह को दबाया। उन्होंने 1672 ई.
में चर्च का निर्माण शुरू किया था लेकिन इसमें उसकी रुचि खत्म हो गई और इसे
अंतत: उनकी मृत्यु के बाद 1718 ई. में पूरा किया गया। ऐसा खासतौर से
रेवरेंड रिचर्ड कोबे के जोश और उत्साह से संभव हो पाया।
जब कोबे के पादरी के रूप में मुम्बई पहुंचा तो उसने पाया कि धार्मिक
अनुष्ठान किले के एक कमरे में किए जाते थे। उसने अपने प्रवचनों में चर्च
में एकत्र जनसमूह के बीच एक समुचित गिरिजाघर बनवाने की आवश्यकता पर जोर
दिया। एक दिन अनुष्ठान में भाग लेने के बाद गवर्नर ने कहा, "हां, तो डॉक्टर
कोबे, आज सुबह आप गिरिजाघर बनाए जाने के लिए जोश में दिखाई दे रहे थे।"
"हां महाशय, मेरे विचार से ऐसा करने की जरूरत है और मुझे आशा है यह किसी को
बुरा नहीं लगा होगा।" कोबे ने जवाब दिया।
"ठीक है, अगर हमें गिरिजाघर की जरूरत है तो वह बनना ही चाहिए।" गवर्नर ने
कहा, "आप एक बही बना दें और देखें कि लोग गिरिजाघर के निर्माण के लिए कितना
चंदा देते हैं।" कोबे ने खुद एक हजार रुपये दान दिए। अन्य राजाओं में
कोर्निलियस टोडिंगटन भी शामिल था जिसने बीस रुपये देते हुए लिखवाया, "मेरी
पत्नी के लिए।" जब भारी मात्रा में धन जमा हो गया तो नींव रखी गई। तीन वर्ष
बाद तैयार हुए गिरिजाघर को क्रिसमस के मौके पर खोला गया। गवर्नर जुलूस में
पहुंचा। धार्मिक अनुष्ठान के बाद वह महिलाओं और मंत्रिमंडल के साथ
वस्त्रागार पहुंचा और नए गिरिजाघर की सफलता की कामना करते हुए उन्होंने
चुनिंदा मैक और शेरी का सेवन किया।
यह गिरिजाघर कोबे के प्रशासन में फला-फूला लेकिन शीघ्र ही कोबे का गवर्नर
के मंत्रिमंडल से झगड़ा हो गया और वह अपने प्रवचनों में मंत्रियों की
आलोचना करने लगा। चूंकि प्रवचन के जरिए भी किसी का अपमान करने की अनुमति
नहीं दी जा सकती थी, सो कोबे को कम्पनी की सेवाओं से निलंबित कर और उसे
पादरी के रूप में काम करने से रोक दिया गया। इसके बाद वह इंग्लैंड लौट गया
और लंबी आयु तक जीवित रहा।
मुम्बई में जब तक कोई विशेष क्षेत्र निर्धारित नहीं किया गया और धीरे-धीरे
अन्य गिरिजाघर नहीं बनाए गए, तब तक इस चर्च को हर जगह बॉम्बे चर्च के नाम
से जाना जाता था और यह मुम्बई में रहने वाले व्यापारियों के लिए पूजा-पाठ
का एकमात्र स्थान था।
1763 ई. में जेम्स फोर्बस ने ओरिएंटल मेमोआयर्स में गिरिजाघर के सामने के उद्यान की सुंदर तस्वीर बनाई।
गिरिजाघर के सामने सैनिकों की फौज खड़ी है। तिरछी टोपी, घुटने तक की पतलून
पहने और एक लंबी छड़ी हाथ में लिए हुए। सिर पर छाता (जिसे नौकर ने पकड़ा
हुआ था) ताने हुए उनकी ओर टकटकी लगाकर देख रहा है। चर्च के पीछे चार घोड़ों
द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी गुजर रही है जिसके आगे-आगे सिपाही चल रहे
हैं। एक आढ़ती को खुली पालकी में ले जाया जा रहा है जिसके पीछे तलवार ताने
दो सिपाही चल रहे हैं। एक सज्जन चार पहियों की गाड़ी (जोकि उन दिनों
बैलगाड़ी का नया रूप था) को जोड़ा बनाकर चला रहा था।
बैल घोड़ों की तरह ही दुलकी चाल से सरपट दौड़ते हैं और हर लिहाज से घोड़ों
जितने काम आते हैं सिवाय इसके कि कभी-कभी वे अपनी पूंछ द्वारा आप पर गंदगी
फेंक देते हैं। पुरानी बम्बई में पूरी वर्दी में सुसज्जित किसी अधिकारी का
बैलगाड़ी में बैठकर मुम्बई घूमना असामान्य तो नहीं, लेकिन आश्चर्य की बात
होती थी।
1836 ई. में गिरिजाघर बिशप क्षेत्र का बड़ा चर्च बन गया और छोटे-से घंटाघर
को एक ऊंची मीनार बना दिया गया। बीस साल बाद गिरिजाघर के पुनर्निर्माण का
लंबा-चौड़ा काम शुरू किया गया लेकिन उसे अमेरिकी असैनिक युद्ध के अंत के
बाद स्थानीय व्यापारियों के काम में मंदी आने के कारण रोक देना पड़ा। चांसल
और पवित्र स्थान इस पुनर्निर्माण योजना का नतीजा हैं और इन्हें बनावटी
गोथिक शैली में बनाया गया है। लेकिन गिरिजाघर की मध्य वीथी और पश्चिमी भाग
पहले बनाए गए थे और वे गौरवशाली और भव्य थे।
बड़े चर्च के भीतर बड़ी संख्या में बने स्मारकों में मुम्बई के इतिहास के
बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। सोलह वर्षो तक गवर्नर रहे जोनाथन
डंकन (1811 ई.) के स्मारक में उसे हिंदू युवक का आर्शीवाद लेते हुए दर्शाया
गया है, जो डंकन के बनारस के निकट कुछ जिलों और काठियावाड़ में शिशु
मृत्यु को रोकने के प्रयास को दर्शाता है।
एक स्मारक कर्नल बर्न का है जिसने किड़की की लड़ाई (1817 ई.) में कमान
संभाली थी। एक स्मारक कर्नल जॉन कैंपबैल का है जिसने 1784 ई. में टीपू के
खिलाफ मंगलौर की रक्षा की थी। दूसरा स्मारक जॉन कार्नेक (1780 ई.) का है
जिसने बंगाल में क्लाइव की सेवा की थी और उसकी पत्नी एलिजा रिवेट का स्मारक
भी है जिसकी तस्वीर रेनाल्ड द्वारा लंदन में वालेस कलेक्शन में लगाई गई
है। एक स्मारक एडमिर मेटलैंड (1839ई.) का है जिसने बैलेरोफोन पर सवार
नेपोलियन का स्वागत किया था और अनेक दूसरे लोगों के भी स्मारक हैं।
आज आधुनिक मुम्बई के चहल-पहल से घिरे माहौल में दो सौ साल पुराने सेंट थॉमस
के बारे में कल्पना करना कठिन लगता है जो विशाल बॉम्बे ग्रीन के मध्य सबसे
महत्वपूर्ण भवन है, लेकिन जिसकी चारदीवारी में प्रवेश करते ही बाहर की
सारी आवाजें शांत हो जाती हैं। यहां आकर बाहर स्थित पत्थरों और मैले
संगमरमर पर हाथ फेरते हुए हम उन दुस्साहसी व्यापारियों की उपस्थिति महसूस
कर सकते हैं जिन्होंने गंदे मलेरियाग्रस्त द्वीप को एक महान बंदरगाह और
भीड़-भाड़ वाले महानगर में बदल दिया।
पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार
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