12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन मात्र से मिट जातें हैं सारे कष्ट

भारतीय मान्यता के अनुसार दुनिया में लगभग 36 करोड़ हिन्दू देवी देवता हैं, जिन्हें पूजा जाता है लेकिन उन सब में भगवन शंकर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसलिए तो उन्हें देवों के देव महा देव कहतें हैं। इन्हीं महा देव के बारह ज्योतिर्लिंग हमारे देश में स्थित हैं। हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रकट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है ये 12 ज्योतिर्लिंग हैं- 


सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्री सोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। कहा जाता है कि भगवान शिव के इन बारह अवतारों में से किसी एक ज्योतिर्लिग का भी अगर पूजन किया जाए तो भक्त को मुक्ति मिल जाती है। साथ ही दैविक, दैहिक व भौतिक कष्टों से छुटकारा भी मिलता है। आईये जानतें हैं इन ज्योतिर्लिंगों के पौराणिक महत्व-


श्री सोमनाथ:


भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह तीर्थस्थान देश के प्राचीनतम तीर्थस्थानों में से एक है और इसका उल्लेख स्कंदपुराणम, श्रीमद्‍भागवत गीता, शिवपुराणम आदि प्राचीन ग्रंथों में भी है। वहीं ऋग्वेद में भी सोमेश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख है। कहा जाता है कि ईसा के पूर्व बने इस मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी|


अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया| 1024 के दिसंबर महिने में मुहमद गजनवी ने कुछ 500 साथीयों के साथ मंदिर में लूटपाट की मंदिर के लिंग को नाश करना चाहा उस वक़्त 50,000 लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे ,सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया । महमूद गजनवी ने इस मंदिर पर 17 बार आक्रमण किया था। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया| 


मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया । इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।


धार्मिक महत्व- पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार सोम नाम चंद्र का है, जो दक्ष के दामाद थे। एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा। जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है। सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की। प्रभु शिव यहाँ पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।




श्रीमल्लिकार्जुन:


यह ज्योतिर्लिंङ्ग आंध्रप्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैलम् पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी को श्री पर्वत, मलया गिरि और क्रौंच पर्वत भी कहते हैं। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं मल्लिका का मतलब पार्वती और अर्जुन का अर्थ शिव होता है। शिवरात्रि के दिन इनकी पूजा और आराधना का धार्मिक महत्व है। कथा एक बार शंकर और पार्वती के पुत्र गणेश व कार्तिकेय के बीच पहले शादी करने के लिए विवाद हो गया। तब शंकर और पार्वती ने कहा दोनों में से जो भी इस पृथ्वी की परिक्रमा पहले करेगा उसकी शादी पहले होगी। कार्तिकेय पृथ्वी का चक्कर लगाने निकल पड़े और गणेश ने शिव-पार्वती की परिक्रमा कर ली। शास्त्रों में माता-पिता की परिक्रमा पृथ्वी के समान बताई गई है। अत: गणेश का विवाह सिद्धि व बुद्धि नाम को दो कन्याओं से कर दिया गया। इससे कार्तिकेय नाराज होकर श्री शैलम् पर्वत पर चले गए। 


कार्तिकेय को खुश करने के लिए शिव इस पर्वत पर ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में प्रकट हुए। यही ज्योतिर्लिंङ्ग मल्लिकार्जुन कहलाया। इसी पहाड़ी पर पार्वती भ्रमराम्बा देवी के रूप में प्रकट हुईं। महत्व ऐसा कहा जाता है कि रावण का वध करने के बाद राम और सीता ने भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन किए थे। द्वापर युग में युधिष्ठिïर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने इनकी पूजा-अर्चना की थी। राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप भी इनकी पूजा करता था। बाद में मंदिर की संपत्ति लूटने के लिए हिंदू विरोधी मान्यता के लोगों ने तोडफ़ोड़ भी की। कालांतर में विजयनगर के राजा श्रीकृष्णदेव राय और रेड्डी वंश के राजाओं ने मंदिर का पुनरोद्धार कराया। धर्मग्रन्थों में यह महिमा बताई गई है कि श्रीशैल शिखर के दर्शन मात्र से मनुष्य सब कष्ट दूर हो जाते हैं और अपार सुख प्राप्त कर जीवन के आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है।


श्रीमहाकाल:


यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जैन प्राचीनकाल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था, इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कन्दपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।


इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीनकाल में उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव-भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप-बालक अपनी माँ के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा का शिवपूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिवपूजन करने के लिए लालायित हो उठा।


सामग्री का साधन न जुट पाने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने आई, किंतु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान्‌ शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। 


रोते-रोते अंत में बेहोश होकर वह वहीं गिर पड़ा। बालक की अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखक भोलेनाथ भगवान्‌ शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। बच्चा प्रसन्नता और आनंद से विभोर होकर भगवान्‌ शिव की स्तुति करने लगा। 


माता को जब यह समाचार मिला तब दौड़कर उसने अपने प्यारे लाल को गले से लगा लिया। पीछे राजा चंद्रसेन ने भी वहाँ पहुँचकर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहाँ बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमानजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- 'मनुष्यों! भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते। इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नंदगोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान्‌ विष्णु कृष्णावतार लेकर उनके वहाँ तरह-तरह की लीलाएँ करेंगे।' हनुमान्‌जी इतना कहकर अंतर्धान हो गए। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए।


ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर:




यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है। 


दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है। पूर्वकाल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान्‌ शिव को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा। 


इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। संपूर्ण मान्धाता-पर्वत ही भगवान्‌ शिव का रूप माना जाता है। इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं लोग भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं। कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। यहाँ लोग भगवान्‌ शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं रात्रि की शिव आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है। तीर्थयात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिए।


इस ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं। एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है। लिंग के दो स्वरूप होने की कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है- एक बार विन्ध्यपर्वत ने पार्थिव-अर्चना के साथ भगवान्‌ शिव की छः मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर भूतभावन शंकरजी वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने विन्ध्य को उनके मनोवांछित वर प्रदान किए। विन्ध्याचल की इस वर-प्राप्ति के अवसर पर वहाँ बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। उनकी प्रार्थना पर शिवजी ने अपने ओंकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिंगों का स्थान और मंदिर पृथक्‌ होते भी दोनों की सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।


शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिए। इनके दर्शन मात्र से ही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अंततः उसे लोकेश्वर महादेव भगवान्‌ शिव के परमधाम की प्राप्ति भी हो जाती है।


श्री वैद्यनाथ:


श्री वैद्यनाथ ज्योतिलिंग बिहार प्रांत के संथाल परगने में स्थित है। शास्त्र और लोक दोनों में इसकी बड़ी प्रसिद्धि है। इसकी स्थापना के विषय में यह कथा कही जाती है-


एक बार रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने के लिए बड़ी घोर तपस्या की। उसने एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू किए। इस प्रकार उसने अपने नौ सिर वहां काट कर चढ़ा डाले। जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काट कर चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ तब भगवान शिव अति प्रसन्न और संतुष्ट होकर उसके समक्ष प्रकट हो गए। शीश काटने को उद्यत रावण का हाथ पकड़कर उन्होंने उसे वैसा करने से रोक दिया। उसके नौ सिर भी पहले की तरह जोड़ दिए और अत्यंत प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा।


रावण ने वर के रूप में भगवान शिव से उस लिंग को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी। भगवान शिव ने उसे यह वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त भी उसके साथ लगा दी। उन्होंने कहा कि तुम इसे ले जा सकते हो किन्तु यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जाएगा, तुम फिर इसे उठा न सकोगे। रावण इस बात को स्वीकार कर उस शिवलिंग को उठाकर लंका के लिए चल पड़ा। चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई। वह उस शिवलिंग को एक अहीर के हाथ में थमा कर लघुशंका की निवृत्ति के लिए चल पड़ा। उस अहीर को शिवलिंग का भार बहुत अधिक लगा वह उसे संभाल न सका।


विवश होकर उसने उसे वहीं भूमि पर रख दिया। रावण जब लौट कर आया तब उसके बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिंग को किसी प्रकार उठा न सका। अंत में निरुपाय होकर उस पवित्र शिवलिंग पर अपने अंगूठे का निशान बनाकर उसे वहीं छोड़कर लंका को लौट गया। तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने वहां आकर उस शिवलिंग का पूजन किया। इस प्रकार वहां उसकी प्रतिष्ठा कर वे लोग अपने-अपने धाम को लौट गए। यही ज्योतिलिंग श्री वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। यह वैद्यनाथ-ज्योतिलिंग अनंत फलों को देने वाला है। यह ग्यारह अंगुल ऊंचा है।


इसके ऊपर अंगूठे के आकार का निशान है। कहा जाता है कि यह वही निशान है जिसे रावण ने अपने अंगूठे से बनाया था। यहां दूर-दूर से तीर्थों का जल लाकर चढ़ाने का विधान है। रोग मुक्ति के लिए भी इस ज्योतिलिंग की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। पुराणों में बताया गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिलिंग के दर्शन करता है उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।


उस पर भगवान शिव की कृपा सदा बनी रहती है। दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट उसके पास भूल कर भी नहीं आते। भगवान भूत भावना की कृपा से वह सारी बाधाओं, समस्त रोगों-शोकों से छुटकारा पा जाता है। उसे परम शांतिदायक शिवधाम की प्राप्ति होती है। शिव की कृपा प्राप्त जन सारे संसार के लिए सुखदायक होता है। उसके सारे कृत्य भगवान शिव को समर्पित करके किए जाते हैं। सारे संसार में उसे भगवान शिव के ही दर्शन होते हैं। सारे प्राणियों के प्रति उसमें ममता और दया का भाव होता है। सभी भेदों में उसकी अभेद दृष्टि हो जाती है। 


श्रीभीमशङ्कर:


श्रीभीमशङ्कर ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग 100 किलोमिटर दूर सेह्याद्री की पहाड़ी पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है कि एक समय प्राचीनकाल में भीम नामक एक महाप्रतापी राक्षस हुआ करता था। वह अपनी माँ के साथ कामरूप प्रदेश में रहता था। वह महाबली राक्षस, राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण का पुत्र था लेकिन उसने अपने पिता से कभी मिला नहीं था। उसके होश संभालने के पूर्व ही भगवान्‌ राम के द्वारा कुंभकर्ण का वध कर दिया गया था। जब वह युवावस्थामें आया तब उसकी माता ने उससे सारी बातें बताईं। भगवान्‌ विष्णु के अवतार श्रीरामचंद्रजी द्वारा अपने पिता के वध की बात सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यंत क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरंतर भगवान्‌ श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा। 


उसने अपनी इस इक्छा को पूरी करने के लिए एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे लोक विजयी होने का वर दे दिया। अब तो वह राक्षस ब्रह्माजी के उस वर के प्रभाव से सारे प्राणियों को पीड़ित करने लगा। उसने देवलोक पर आक्रमण करके इंद्र आदि सारे देवताओं को वहाँ से बाहर निकाल दिया।


उसने पूरे देवलोक पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने भगवान्‌ श्रीहरि को भी युद्ध में परास्त किया। श्रीहरि को पराजित करने के पश्चात उसने कामरूप के परम शिवभक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मंत्रियों-अनुचरों सहित बंदी बना लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके अत्याचार से वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का सर्वत्र एकदम लोप हो गया। वह किसी को कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं करने देता था। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप, स्वाध्याय आदि के सारे काम एकदम रूक गए। 


भीम के अत्याचार की भीषणता से घबराकर ऋषि-मुनि और देवगण भगवान्‌ शिव की शरण में गए और उनसे अपना तथा अन्य सारे प्राणियों का दुःख कहा। उनकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने कहा कि मैं शीघ्र ही उस अत्याचारी राक्षस का संहार करूँगा। उसने मेरे प्रिय भक्त, कामरूप-नरेश सुदक्षिण को भी सेवकों सहित बंदी बना लिया है। वह अत्याचारी असुर अब और अधिक जीवित रहने का अधिकारी नहीं रह गया। भगवान्‌ शिव से यह आश्वासन पाकर ऋषि-मुनि और देवगण अपने-अपने स्थान को वापस लौट गए।


इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में पड़े हुए राजा सदक्षिण ने भगवान्‌ शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत्त होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। किंतु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिंग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात्‌ शंकरजी वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया।


भगवान्‌ शिवजी का यह अद्भुत कृत्य देखकर सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहाँ एक होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान्‌ शिव से प्रार्थना की कि महादेव! आप लोक-कल्याणार्थ अब सदा के लिए यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जाएगा। भगवान्‌ शिव ने सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वहाँ वह ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।


श्री रामेश्वरम:


हिंदू धर्म में तमिलनाडु के रामनाथपुरम में स्थित रामेश्वरम ज्योतिर्लिग एक विशेष स्थान रखता है। यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि उत्तर में जितना महत्व काशी का है, उतना ही महत्व दक्षिण में रामेश्वरम का भी है। रामेश्वरम चेन्नई से करीब 425 मील दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित एक सुंदर टापू है, जिसे हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी चारों तरफ से घेरे हुए है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामंद्रजी ने की थी। स्कंदपुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है|


कहतें है जबभगवान्‌ श्रीरामंद्रजी लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्र की बालू से शिवलिंग बनाकर उसका पूजन किया था। दूसरी कथा भी प्रचलित है कहते हैं कि भगवान श्री राम जब रावण का वध करके और माता सीता को कैद से छुड़ाकर अयोध्या जा रहे थे तब उन्होंने मार्ग में गन्धमादन पर्वत पर रुक कर विश्राम किया था। उनके आने की खबर सुनकर ऋषि-महर्षि उनके दर्शन के लिए वहां पहुंचे। ऋषियों ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने पुलस्त्य कुल का विनाश किया है, जिससे उन्हें ब्रह्म हत्या का पातक लग गया है। 


श्रीराम ने पाप से मुक्ति के लिए ऋषियों के आग्रह से ज्योतिर्लिग स्थापित करने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने हनुमान से अनुरोध किया कि वे कैलाश पर्वत पर जाकर शिवलिंग लेकर आएं लेकिन हनुमान शिवलिंग की स्थापना की निश्चित घड़ी पास आने तक नहीं लौट सके। जिसके बाद सीताजी ने समुद्र के किनारे की रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना डाला। श्रीराम ने प्रसन्न होकर इसी रेत के शिवलिंग को प्रतिष्ठापित कर दिया। यही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर उनके द्वारा लाए गए शिवलिंग को उसके साथ ही स्थापित कर दिया गया। इस लिंग का नाम भगवान राम ने हनुमदीश्वर रखा।


श्रीनागेश्वर:


भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिलिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील दूर स्थित है। इसके संबंध में पुराणों में यह कथा दी हुई है कि सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी व्यापारी भगवान शिव का अनन्य भक्त था। वह निरंतर उनके आराधन, पूजन और ध्यान में लीन रहता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णत: शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्ध रहता था। उसे भगवान शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरंतर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुंचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था तब उस दुष्ट राक्षस ने यह उपयुक्त अवसर देख कर उस नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़ कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर दिया। 


सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्य नियम के अनुसार भगवान शिव की पूजा-आराधना करने लगा। अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर उस कारागार में आ पहुंचा। सुप्रिय उस समय भगवान शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आंखें बंद किए बैठा था।


राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देख कर अत्यंत भीषण स्वर में उसे डांटते हुए कहा कि अरे दुष्ट, तू आंखें बंद कर इस समय यहां कौन से उपद्रव और षड्यंत्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिव भक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह महाभयानक राक्षस क्रोध से एकदम बावला हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचर राक्षसों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।


सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ। वह एक निष्ठ भाव और एकाग्र मन से अपनी व अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव को पुकारने लगा। उसे पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान शिव इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएंगे। उसकी प्रार्थना सुन कर भगवान शंकर तत्क्षण उस कारागार में एक ऊंचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिलिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत अस्त्र भी प्रदान किया। उस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायकों का वध करके सुप्रिय शिव धाम को चला गया। भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिलिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा। 


श्री विश्वनाथ:


काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस ज्योतिर्लिंग के बारे में कथा प्रचलित है कि भगवान्‌ शंकर पार्वतीजी से विवाह करके कैलास पर्वत रह रहे थे लेकिन वहाँ पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वतीजी को अच्छा न लगता था। 


एक दिन उन्होंने भगवान्‌ शिव से कहा कि आप मुझे अपने घर ले चलिए। यहाँ रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं, मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है। भगवान्‌ शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। माता पार्वतीजी को साथ लेकर अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए। यहाँ आकर वे विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।


इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान्‌ शिवजी की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।


श्री त्र्यम्बकेश्वर:


त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप असस्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतिक माने जाते हैं। 


त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संबंध में पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। शिवपुराण के मुताबिक, यह स्थान कभी ऋषि गौतम और हजारों साधु-संतों का तपोस्थल था। अपनी साधना और तपोबल के कारण ऋषि गौतम अन्य सभी संतों से इक्कीस पड़ते थे। उनकी प्रसिद्धि से सारा संत समाज चिढ़ता था। एक बार कुछ साधुओं ने ऋषि गौतम को गोहत्या के झूठे आरोप में फंसा दिया। गोहत्या के कलंक से छुटकारा पाने के लिए महर्षि गौतम ने ब्रह्मïगिरि पर्वत पर तपस्या कर भगवान शिव को प्रकट होने और उनकी जटाओं में बसी गंगा को अवतरित होने के लिए मजबूर कर दिया, तभी से माना जाता है कि इस स्थान पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में और उनकी प्रिय गंगा गोदावरी नदी के रूप में स्थापित हैं।


कहा जाता है कि यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है। मंदिर परिसर में सारा साल धार्मिक अनुष्ठान व पूजा चलती रहती है, काल सर्प दोष, नारायण नागबली पूजा के लिए देशभर से लोग यहां आते हैं। मंदिर के पास में ही कुशावर्त तीर्थस्थल है, जहां गोदावरी बहती है। यहां से 7 कि.मी. की दूरी पर अंजनेरी पर्वत स्थित है, जिसे हनुमान जी की जन्मस्थली माना जाता है। श्री क्षेत्र त्र्यम्बकेश्वर एक महान तीर्थस्थल है, जहां आने वालों के सभी कष्टï भगवान शंकर दूर करते हैं। त्र्यम्बकेश्वर के कण-कण में भगवान शिव और उनसे जुड़ी कथाओं की महक आती है। यहां आकर तन और मन दोनों उल्लास से भर जाते हैं।


श्री केदारनाथ:


यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमती मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से ही हमें धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है। चोटी के पूर्व में अलकनंदा के सुरम्य तट पर बद्रीनाथ का परम प्रसिद्ध मंदिर है। अलकनंदा और मंदाकिनी- ये दोनों नदियाँ नीचे रुद्रप्रयाग में आकर मिल जाती हैं। दोनों नदियों की यह संयुक्त धारा और नीचे देवप्रयाग में आकर भागीरथी गंगा से मिल जाती हैं। इस प्रकार परम पावन गंगाजी में स्नान करने वालों को भी श्री केदारेश्वर और बद्रीनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ हो जाता है। कहा जाता है कि यहीं महातपस्वी श्रीनर और नारायण ने बहुत वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। 


कई हजार वर्षों तक वे निराहार रहकर एक पैर पर खड़े होकर शिव नाम का जप करते रहे। इस तपस्या से सारे लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, गन्धर्व सभी उनकी साधना और संयम की प्रशंसा करने लगे। चराचर के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन-पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी महापस्वी नर-नारायण के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, अंत में भगवान शंकरजी भी उनकी उस कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिए। 


नर और नारायण ने भगवान्‌ भोलेनाथ के दर्शन से भाव-विह्वल और आनंद-विभोर होकर बहुत प्रकार की पवित्र स्तुतियों और मंत्रो से उनकी पूजा-अर्चना की। भगवान्‌ शिवजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। भगवान्‌ शिव की यह बात सुनकर दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, 'देवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा-सर्वदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें। 


आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान सभी प्रकार से अत्यंत पवित्र हो उठेगा। यहाँ आपका दर्शन-पूजन करने वाले मनष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभो! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें।'


उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ वास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय-श्रृंग पर स्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन तथा यहाँ स्नान करने से भक्तों को लौकिक फलों की प्राप्ति होने के साथ-साथ अचल शिवभक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है


ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा है कि दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।


पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भभगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया।


श्रीघुश्मेश्वर:


ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है।


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