यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज'





इसे अंधविश्वास माना जाए या फिर कुछ और कि आम दिनों में घर की खपरैल पर 'कौआ' की हाजिरी को बुंदेली अशुभ मान इन्हें 'हाड़ी' कह कर दुत्कारते हैं, पर पितृ पक्ष में एक पखवाड़ा इन्हीं कौओं से 'दाई-बाबा' का रिश्ता कायम कर पूर्वजों के श्राद्ध में 'कौआ भोज' आयोजित करते हैं। लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं और 'कौआ भोज' से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होगी। 





वैसे बुंदेलखंड में कई ऐसी पुरानी परम्पराएं आज भी चल रही हैं, जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। अब आप पितृपक्ष में पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को ही ले लीजिए। आम दिनों में घर की चौखट या खपरैल पर कौआ के बैठने को यहां के वाशिंदे अशुभ मानते हैं और उसे 'हाड़ी' कह कर दुत्कार कर भगा देते हैं, लेकिन एक पखवाड़ा चलने वाले पितृपक्ष में इन्हीं कौवों से 'दाई-बाबा' (दादा-दादी) का रिश्ता कायम कर उनकी खातिरी में 'कौआ भोज' तक आयोजित करते चले आ रहे हैं। 





बुजुर्ग लोगों का मानना है कि पूर्वज कौआ का भी जन्म ले सकते हैं, कौवों को भोजन कराने से पुरखों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जल्दी ही उनका मानव के रूप में जन्म भी हो जाता है। खास बात यह है कि श्राद्ध की पूर्वसंध्या पर घर की बुजुर्ग महिला अपने आंगन से ऊंची आवाज लगाकर 'दाई-बाबा' को भोज में शामिल होने का आमंत्रण देती हैं और वही महिला श्राद्ध की सुबह कई प्रकार के पकवान बनाकर घर की खपरैल पर रख देती हैं, जिसे झुंड में पहुंचे कौआ खाते हैं। 





यहां यह बताना जरूरी है कि बुंदेलखंड में गंगापारी कम और सामान्य प्रजाति के कौआ ज्यादा पाए जाते हैं, अगर श्राद्ध के दिन एक भी गंगापारी कौआ इस भोज में शामिल हो गया तो उस परिवार के सदस्य इसलिए बेहद खुश होते हैं कि उनका पूर्वज मोक्ष प्राप्त कर वापस आया है।





इस पुरानी परम्परा के बारे में बांदा जनपद के पनगरा गांव में कई सालों से पितृ पक्ष के क्रियाकर्म कराते आ रहे बुजुर्ग ब्राह्मण पंडित बद्री प्रसाद दीक्षित बताते हैं, "किसी भी धर्मग्रंथ में पूर्वजों के श्राद्ध में कौआ भोज कराने का उल्लेख नहीं है, पर 84 लाख योनि में कौआ भी आता है। कर्मो के आधार पर अगला जन्म होना बताया जाता है, हो सकता है कि किसी का पूर्वज कौआ योनि में जन्म ले लिया हो।" वह बताते हैं कि श्राद्ध के दिन पुण्यदान और भोज कराने की परम्परा चली आ रही है, इसलिए इस पक्षी को भी आमंत्रित किया जाता है। 





इसी गांव की पिछड़े वर्ग की बुजुर्ग महिला सहदेइया (78) बताती हैं कि वह अपने पूर्वजों के श्राद्ध में कई साल से कौवों को भोज में आमंत्रित करती आई है, यह परम्परा कब और कैसे शुरू हुई उसे नहीं मालूम। लेकिन शिक्षित वर्ग इस परम्परा को बकवास और अंधविश्वास मानता है।





इसी गांव के बलराम दीक्षित का कहना है, "गैर शिक्षित समाज में बेमतलब की परम्पराएं थोपी गई हैं, जिनका कुछ भी सामाजिक आशय नहीं है। मरणोपरांत किसका जन्म कहां और किस रूप में हुआ, किसी को पता नहीं है।" यह भले ही अंधविश्वास से जुड़ी परम्परा हो, लेकिन बुंदेलखंड में पूर्वजों का श्राद्ध करने वाला शिक्षित और गैर शिक्षित दोनों वर्ग इस अनूठे भोज का आयोजन करवाता है।


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