उप्र में जातिवाद की राजनीति शुरू





वर्ष 2014 में होने वाले आम चुनाव से ठीक पहले उप्र में जातिवाद की राजनीति ने रंग दिखाना शुरू कर दिया है। सूबे की समाजवादी पार्टी (सपा) हो या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सभी अपने-अपने तरीके से जातियों को साधने में जुट गई हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी भी पिछड़े तबके से आते हैं और भाजपा उनके पिछड़े तबके का होने का राग बराबर अलाप रही है। भाजपा की ओर से बनाया गया सामाजिक न्याय मोर्चा भी विभिन्न जातियों को साधने में जुटा हुआ है। 





भाजपा ने भी चुनाव आते ही पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के समय में बनाई सामाजिक न्याय समिति की संस्तुतियों की दुहाई देनी शुरू कर दी है। सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए यह समिति बनाई थी, जिसमें आरक्षण लाभ का प्रतिशत तय किया गया था। पार्टी अब इसी समिति की संस्तुतियों को लेकर मैदान में उतर गई है। 





इधर, अमित शाह उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में यहां जातीय समीकरणों की थाह लेने में जुटे हुए हैं। सपा की तरफ से भी कई जातियों को आरक्षण दिए जाने की बात कही जा रही है। सपा पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए यात्रा भी निकाल चुकी है। जातिवादी राजनीति और विकास के मुददों के बीच प्रख्यात सामाजिक विश्लेषक प्रो. सत्यमित्र दूबे कहते हैं कि सामाजिक न्याय और विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। पिछड़ी जातियों को जब तक सामाजिक न्याय हासिल नहीं होगा तब तक उनका विकास कैसे होगा। 





दूबे ने कहा, "हमें नहीं लगता कि लोगों को विकास और जातिवादी राजनीति के बीच फंसना चाहिए। हां, यह जरूर है कि पिछड़ों को लुभाने के प्रयास चुनाव के दौरान ही क्यों किए जाते हैं लेकिन इसका जवाब तो नेता ही देंगे।" बहरहाल, लोकसभा चुनाव 2014 को लेकर एक बार फिर जाति की सियासत तेज होती दिख रही है। 





प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय ने कहा कि राजनीति में जातिवाद का असर तो है ही और यह इतनी जल्दी समाप्त भी नहीं होगा। उन्होंने कहा, "जातिवाद की राजनीति पहले से कम तो हुई है लेकिन अभी यह हावी रहेगी। आने वाले समय में इसका असर जरूर कम होगा। उप्र में जो भी घोषणाएं हो रही हैं, वह सारी लोकलुभावन हैं। इससे विकास का कोई लेना देना ही नहीं है।"





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