आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ का धार्मिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।
'उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। जनेऊ का निर्माण दो तूड़ियों से किया जाता है जिसमें तीन -तीन लपेट होते हैं। तीनों लपेट क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीनों देवताओं के प्रतीक माने गए हैं। धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है।
जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से जनेऊ स्वास्थ्य और पौरुष के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ा होता है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्र की रक्षा होती है। जिन पुरुषों को बार-बार बुरे स्वप्न आते हैं उन्हें सोते समय कान पर जनेऊ लपेट कर सोना चाहिए। माना जाता है कि इससे बुरे स्वप्न की समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
जनेऊ धारण करने की परम्परा काफ़ी प्राचीन है। भारत में हिन्दू समाज सबसे प्रमुख है और इसी समाज की परम्परा है- जनेऊ धारण करना। पूजा पाठ भारतीय परंपरा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है और भारतीय समाज के अनुसार एक बच्चा तैरह साल का होने के पश्चात, तब तक किसी भी यज्ञ में आहुति नहीं दे सकता, जब तक उसने जनेऊ धारण ना किया हो। साधारण भाषा में जनेऊ एक ऐसी परंपरा है, जिसके बाद ही एक बच्चे को मर्द का स्थान दिया जाता है और वह पारंपरिक तौर से पूजा आदि में भाग ले सकता है।
परन्तु भारतीय पूजा से सम्बंधित कई खोखली परम्पराओं कि तरह जनेऊ भी दलित समाज धारण नहीं कर सकता। यह परंपरा केवल लड़कों के लिए होती है और किसी भी लड़के के तैरह साल के होने के पश्चात उसके माता-पिता मंदिर में जाकर या पंडित को घर बुलाकर इस परंपरा को निभाते हैं। जनेऊ परंपरा निभाने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। जनेऊ वास्तव में एक सफ़ेद रंग का धागा होता है, जिसे पंडित लड़के की छाती से पेट तक बाँधता है।
क्यों करते हैं धारण
जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठ भाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है, जो विद्युत के प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकूचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।
कान पर क्यों चढ़ाते है जनेऊ?
आपने देखा होगा कि लोग लघुशंका एवं दीर्घशंका के समय जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेते हैं| दाहिने कान पर जनेऊ चढ़ाने का वैज्ञानिक कारण है; आयुर्वेद के अनुसार, दाहिने कान पर 'लोहितिका' नामक एक विशेष नाड़ी होती है, जिसके दबने से मूत्र का पूर्णतया निष्कासन हो जाता है। इस नाड़ी का सीधा संपर्क अंडकोष से होता है। हर्निया नामक रोग का उपचार करने के लिए डॉक्टर दाहिने कान की नाड़ी का छेधन करते है । एक तरह से जनेऊ 'एक्यूप्रेशर' का भी काम करता है|
मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
www.pardaphash.com
Post a Comment