अब रस्मों को भी अपने अंदाज में समेटने लगा इंसान



अब रस्मों को भी अपने अंदाज में समेटने लगा इंसानहिंदू रीति से होने वाले विवाह में मंडप सबसे अहम होता है। मंडप का मतलब
महज आम के पत्ते लगा फूस का छप्पर भर नहीं होता, इसके साथ साक्षी होते हैं
वे देवता जिन्हें आवाहन कर बुलाया जाता है और वह नए जीवन में प्रवेश करने
वाले वर-वधू को अपना आशीर्वाद देते हैं और उनके वैवाहिक बंधन के साक्षी
बनते हैं। अब बदले दौर में परंपराओं का जैसे-जैसे आधुनिकीकरण होता गया,
वैसे-वैसे मंडप पर भी इसका असर देखने को मिल रहा है। इसी औपचारिकता के चलते
अब रेडीमेड मंडप की मांग बढ़ गई है। हाईटेक और भागम-भाग वाली जिंदगी का
हिस्सा बन चुका इंसान अब रस्मों को भी अपने अंदाज में समेटने लगा है।




धार्मिक रीति-रिवाजों के मुताबिक शादी की रस्मों की शुरुआत मंडप से होती
है। इसके लिए पुरोहित दिन व समय निश्चित करते हैं। उचित समय पर गाड़े गए
मंडप शादी होने के बाद शुभ मुहूर्त में ससम्मान विसर्जित होते हैं। मान्यता
है कि शादी के शुभ मुहूर्त पर पुरोहित के आवाहन पर सभी देवता मंडप के नीचे
विराजमान रहते हैं और वैवाहिक जोड़े के लिए सुखी वैवाहिक जीवन के द्वार
खोलते हैं।



एक वक्त था, जब कन्यापक्ष के बीच मंडप को लेकर बेहद उत्सकुता और जिम्मेदारी
का भाव रहता था। मंडप को इतनी अहयिमत दी जाती थी कि इसके लिए घर के
बड़े-बजुर्ग पहले से ही तैयारियों में जुट जाते थे। ऐसी मान्यताएं समाज में
प्रारंभ से मानी जा रही हैं। लेकिन वक्त के साथ आए बदलाव का असर है कि आज
लोगों ने मंडप का दूसरा फार्मूला तैयार कर लिया है।



बढ़ती आबादी, सिकुड़ते मकान और सीमित जगहों के कारण मंडप कहीं मैरिज हॉल के
किसी कोने में रेडिमेड तरीके से खड़ा किया जा रहा है, तो कहीं खुले मैदान
में ऐसी जगह मंडप बनाया जा रहा है, जहां सिर्फ वर-वधू पक्ष के सीमित लोग ही
मौजूद रह सकें और बाकी जगह शादी की दूसरी व्यवस्थाओं, स्टेज और कैटरिंग के
लिए इस्तेमाल की जा रही है। दरअसल, मंडप अब पीछे छूटता जा रहा है और शादी
का सारा आकर्षण 'जयमाल' और डीजे तक सिमटता जा रहा है।



वहीं फेरों के लिए अब मंडप औपचारिकता भर रह गया है। शादी के अन्य इंतजामों
के साथ-साथ टेंट वाले को मंडप का भी जिम्मा सौंप दिया जाता है, जिसके
कारीगर आनन-फानन में मिनटों में मंडप तैयार करके चले जाते हैं। शादी के
बाकी इंतजामों को लेकर भले ही कन्या पक्ष को चिंता हो, लेकिन आमतौर पर मंडप
अब चिंता का विषय नहीं बनता। वहीं दहेज रहित विवाहों के समारोहों में तो
सैकड़ों मंडप थोक के भाव एक साथ मंगाए जाते हैं और शादियां समाप्त होने के
बाद सभी मंडप उठ जाते हैं।



परंपराओं से हो रहे खिलवाड़ पर पं. कृष्णदेव शुक्ल कहते हैं कि मंडप का
महत्व लोग भूल रहे हैं और जाने-अनजाने में धार्मिक परंपराओं से खिलवाड़ कर
रहे हैं। इससे वैवाहिक जीवन में दुश्वारियां आ सकती हैं, लेकिन अतिव्यस्त
जीवन शैली में समयाभाव के कारण लोग विकल्प तलाशने लगे हैं। शुक्ल के
मुताबिक, रेडीमेड मंडपों का उपयोग परंपरा के लिहाज से ठीक नहीं है। खासतौर
से जैसे-जैसे इसका व्यवसायीकरण हो रहा है, वैसे वैसे परंपपराएं पीछे छूटती
जा रही हैं और मंडप भी खानापूर्ति का हिस्सा बनते जा रहे हैं।



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