आचार्य विनोबा भावे की 120वी जयंती पर उनको शत-शत नमन



राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी कहे जाने वाले महान समाज सुधारक
एवं चिंतक आचार्य विनोबा भावे देश के उन विद्वज्जनों में शुमार हैं,
जिन्होंने आजादी के बाद देश के समक्ष सबसे बड़े संकटों को पहचाना और उन्हें
दूर करने के लिए प्रभावी प्रयास किए। विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895
को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। विनोबा का वास्तविक नाम विनायक नरहरि
भावे था। छोटी उम्र में ही विनोबा भावे ने रामायण, महाभारत और भागवत गीता
का अध्ययन कर लिया था। वह इनसे बहुत ज्यादा प्रभावित भी हुए थे। विनोबा
भावे अपनी माता से सर्वाधिक प्रभावित थे। विनोबा का कहना था कि उनकी
मानसिकता और जीवनशैली को सही दिशा देने और उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित
करने में उनकी मां का ही योगदान है।



विनोबा गणित के बहुत बड़े विद्वान थे, लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1916 में
जब वह अपनी 10वीं की परीक्षा के लिए मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने महात्मा
गांधी का एक लेख पढ़कर शिक्षा से संबंधित अपने सभी दस्तावेजों को आग के
हवाले कर दिया था। विनोबा भावे अपने युवाकाल में ही महात्मा गांधी के समीप आ
गए थे। गांधी की सादगी ने जहां उन्हें मोह लिया, वहीं राष्ट्रपिता ने
विनोबा के भीतर एक विचारक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व के लक्षण देखे। इसके
बाद विनोबा ने आजादी के आंदोलन के साथ-साथ महात्मा गांधी के सामाजिक कार्यो
में सक्रियता से भाग लिया।



विनोबा भावे एक महान विचारक, लेखक और विद्वान थे, और अनेक भाषाओं के ज्ञाता
भी। उन्हें लगभग सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान था। वह एक उत्कृष्ट वक्ता और
समाज सुधारक भी थे। विनोबा भावे के अनुसार, कन्नड़ लिपि विश्व की सभी
लिपियों की रानी है। विनोबा ने गीता, कुरान, बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों का
अनुवाद तो किया ही, साथ ही इनकी आलोचनाएं भी कीं। विनोबा भावे भागवत गीता
से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वह कहते थे कि गीता उनके जीवन की हर एक सांस
में है। उन्होंने गीता को मराठी भाषा में अनूदित भी किया था।



आजादी के बाद देश में सामंती एवं राजशाही व्यवस्था कानूनी रूप से तो खत्म
हो गई, लेकिन सामाजिक व्यवस्था में वह कहीं न कहीं व्याप्त थी। विनोबा भावे
ने ऐसे समय में देश में भूमि सुधार की जरूरत को समझा और 'भूदान यज्ञ' की
शुरुआत की। विनोबा भावे के भूमिसुधार आंदोलन के महत्व को इस बात से भी समझा
जा सकता है कि आज भी देश को बड़े स्तर पर भूमिसुधार की जरूरत है, और हाल
ही में संसद द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण विधेयक को भी भूमिसुधार की एक कड़ी
के रूप में देखा जा सकता है। आजादी के बाद विनोबा ने गांधीवादियों को
सलााह दी कि स्वराज हासिल करने के बाद उनका उद्देश्य सर्वोदय के लिए
समर्पित समाज का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए विनोबा ने देश के सबसे
पिछड़े इलाकों में से एक तेलंगाना को चुना, क्योंकि वहां से उस समय भूमि
मालिकों के खिलाफ कुछ हिंसक घटनाओं की खबरें आ रही थीं।



उन हिंसक घटनाओं ने सरकार के खिलाफ संघर्ष का रूप ले लिया, तो विनोबा ने उस
हिंसक संघर्ष को समाप्त करने के लिए खुद पहल करने का संकल्प लिया। विनोबा
अपने संकल्प की साधना में पैदल ही निकल पड़े तथा तीसरे दिन तेलंगाना के
पोचमपल्ली गांव पहुंचे। वहां वह मुस्लिम प्रार्थनास्थल में रुके। वहां
विनोबा क्षेत्र के 40 भूमिहीन दलित परिवारों से मिले और उनकी समस्याएं
जानीं। लोगों ने जब विनोबा से पूछा कि क्या वह उन्हें सरकार से भूमि दिला
सकते हैं? तो विनोबा ने कहा कि इसमें सरकार की क्या जरूरत है? इसके लिए
विनोबा ने उसी क्षेत्र के कुछ लोगों से मदद मांगी तो गांव के एक प्रमुख
किसान ने 100 एकड़ भूमि दान देना स्वीकार कर लिया, जबकि दलित सिर्फ 80 एकड़
भूमि मांग रहे थे। विनोबा भावे देश की विकराल समस्या का हल मिल गया।



यहीं से विनोबा के भूदान आंदोलन की शुरुआत हुई। विनोबा ने सिर्फ तेलंगाना
के 200 गांवों से सात सप्ताह के भीतर 12,000 एकड़ भूमि जुटा ली। विनोबा के
उस समय चलाए आंदोलन की गूंज का हम इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि एशिया
का नोबेल के रूप में प्रतिष्ठित प्रथम रैमन मैग्सेसे पुरस्कारों की जब
घोषणा हुई तो विनोबा को सामुदायिक नेतृत्वकर्ता के लिए पहला मैग्सेसे
पुरस्कार प्रदान किया गया। विनोबा सच्चे संन्यासी थे। नवंबर 1982 में
अत्याधिक बीमार पड़ने के बाद उन्होंने अपनी इहलीला स्वेच्छा से समाप्त करने
का संकल्प लिया और अन्न-जल का त्याग कर दिया। परिणामस्वरूप 15 नवंबर, 1982
को विनोबा पंचतत्व में विलीन हो गए। विनोबा को समाज को दिए उनके अप्रतिम
योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत 1983 में देश के सर्वोच्च
सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।


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