जीवन की कठिनाइयों ने 'धनपत राय' को बनाया प्रेमचंद





प्रेमचंद उपनाम से लिखने वाले धनपत राय हिंदी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय और उपन्यास सम्राट के नाम से भी जाना जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखकर उन्होंने हिंदी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। 





प्रेमचंद का लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्ध में जब हिंदी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। 





प्रेमचंद के बाद कई साहित्यकारों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया। 





हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का नम अमर है। उन्होंने हिंदी कहानी को एक नई पहचान व नया जीवन दिया। आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। उन्हें 'कथासम्राट' की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में उन्होंने मनुष्य के जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। 





आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शो को भी वर्णित किया है। 





इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढ़ियों, अंधविश्वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। 'ईदगाह', 'पूस की रात', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'नमक का दारोगा', 'दो बैलों की कथा' जैसी कहानियां कालजयी हैं। उन्हें कलम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि कई नामों से पुकारा जाता है।





मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारास के पास लमही नामक गांव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। उनका असली नाम धनपतराय। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा। दुख ने यहीं उनका पीछा नहीं छोड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में मुंशी थे।





सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ अपनी रोजी-रोटी चलाई।





उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने 'तिलिस्मे होशरूबा' समूचा पढ़ लिया। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ उन्होंने पढ़ाई भी जारी रखी। 





सन् 19910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और 1919 में बीए पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 





उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संतानें हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। 





वर्ष 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। 





उर्दू में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'जमाना' के सम्पादक और उनके अजीज दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। उन्होंने आरंभिक लेखन जमाना पत्रिका में ही किया। 





जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास 'मंगलसूत्र' पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को उनका निधन हो गया।





प्रेमचंद का रचना संसार :





उपन्यास : वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन (1916), प्रेमाश्रम (1922), निर्मला (1923), रंगभूमि (1924), कायाकल्प (1926), गबन (1931), कर्मभूमि (1931), गोदान (1932), मनोरमा, मंगल-सूत्र (1936-अपूर्ण)।





कहानी-संग्रह : प्रेमचंद के 21 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे, जिनमें 300 के लगभग कहानियां हैं। ये 'शोजे वतन', 'सप्त सरोज', 'नमक का दारोगा', 'प्रेम पचीसी', 'प्रेम प्रसून', 'प्रेम द्वादशी', 'प्रेम प्रतिमा', 'प्रेम तिथि', 'पंच फूल', 'प्रेम चतुर्थी', 'प्रेम प्रतिज्ञा', 'सप्त सुमन', 'प्रेम पंचमी', 'प्रेरणा', 'समर यात्रा', 'पंच प्रसून', 'नवजीवन' जैसे शीर्षकों से प्रकाशित हुई थीं।





प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियों का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।





नाटक : संग्राम (1923), कर्बला (1924) प्रेम की वेदी (1933)।





जीवनियां : महात्मा शेख सादी, दुगार्दास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार (आत्मकथा)





बाल रचनाएं : मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियां, राम चर्चा।





इनके अलावा प्रेमचंद ने अनेक विख्यात लेखकों यथा- जॉर्ज इलियट, टॉलस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियों का अनुवाद भी किया।





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