शहरों में, कस्बों में पढ़ती हैं
गावों की लड़कियां
साईकिल चलाती हैं पैदल भी चलती हैं
लौटती दुपहर में बस में भी जलती हैं
भीड़ भरी सड़कों की आवारा लड़कों की
आँखों में गड़ती हैं
गावों की लड़कियां
संस्कार जीती हैं पली हैं अभावों में
हाथों में हथकड़ियाँ बेड़ी हैं पावों में
खेत की कमाई से बाप की समाई तक
स्वयं को जकड़ती हैं
गावों की लड़कियां
घर के सब कम काज कपडे तक धोती हैं
अधरों की मुश्काने कई बार रोटी हैं
कोर्स कहाँ पूरा है स्वपन भी अधूरा है
खुद से ही लडती हैं
गावों की लड़कियां
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