वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। अक्षय तृतीया पर्व को कई नामों से जाना जाता है| इसे अखतीज और वैशाख तीज भी कहा जाता है| इस बार अक्षय तृतीया का पर्व 24 अप्रैल, मंगलवार को है। इसे सौभाग्य दिवस भी कहते हैं। इस तिथि का जहां धार्मिक महत्व है वहीं यह तिथि व्यापारिक रौनक बढ़ाने वाली भी मानी गई है। इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की खरीद फरोख्त को बहुत ही शुभ माना जाता है।
इसी दिन श्री बद्रीनारायण धाम के पट खुलते हैं श्रद्धालु भक्त प्रभु की अर्चना-वंदना करते हुए विविध नैवेद्य अर्पित करते हैं। अक्षय तृतीया सुख-शांति व सौभाग्य में निरन्तर वृद्धि करने वाली है। इस परम शुभ अवसर का जैसा नाम वैसा काम भी है अर्थात् अक्षय जो कभी क्षय यानी नष्ट न हो ऐसा अक्षय पुण्य मिलता है।
अक्षय तृतीया को युगादि तिथि भी कहा जाता है। वैशाख मास में भगवान सूर्य की तेज धूप तथा प्रचंड गर्मी से प्रत्येक जीवधारी भूख-प्यास से व्याकुल हो उठता है इसलिए इस तिथि में शीतल जल, कलश, चावल, चने, दूध, दही, खाद्य व पेय पदार्थो सहित वस्त्राभूषणों का दान अक्षय व अमिट पुण्यकारी माना गया है।
सुख, शांति, सौभाग्य तथा समृद्धि हेतु इस दिन शिव-पार्वती और नर-नारायण के पूजन का विधान है। इस दिन श्रद्धा-विश्वास के साथ व्रत रख जो प्राणी पवित्र नदियों और तीर्थो में स्नान कर अपनी शक्तिनुसार देवस्थल व घर में ब्राह्मणों द्धारा यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दानादि शुभ कर्म करते हैं उन्हें उन्नत व अक्षय फल की प्राप्ति होती है।
तृतीया तिथि मां गौरी की तिथि है जो बल-बुद्धिवर्धक मानी गई है। अतः सुखद गृहस्थी की कामना से जो भी विवाहित जोड़े इस दिन मां गौरी व सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा करते हैं उनके सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि अविवाहित इस दिन श्रद्धा-विश्वास से प्रभु शिव व माता गौरी को उनके परिवार सहित शास्त्रीय विधि से पूजते हैं, उन्हें सुखद वैवाहिक सूत्र में जुड़ने का पवित्र अवसर मिलता है।
अक्षत तृतीया व्रत एवं पूजा-
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है।
इसके अलावा अक्षय तृतीया पर पूर्वज पृथ्वी के निकट आनेसे अक्षय तृतीया पर मानव को अधिक कष्ट होने की संभावना होती है । मानवपर पूर्वजों का ऋण भी भारी मात्रा में है । ईश्वर को अपेक्षित है कि मानव इसे चुकाने के लिए प्रयत्न करे । इस हेतु अक्षय तृतीया पर पूर्वजों को तिल तर्पण करने की आवश्यकता होती है ।
अक्षय तृतीया में दान का महत्व-
अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है|+ इस दिन गंगा इत्यादि पवित्र नदियों और तीर्थों में स्नान करने का विशेष फल प्राप्त होता है| यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दान आदि कर्म करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है|
अक्षय तृ्तिया के दिन गर्मी की ऋतु में खाने-पीने, पहनने आदि के काम आने वाली और गर्मी को शान्त करने वाली सभी वस्तुओं का दान करना शुभ होता है| इसके अतिरिक्त इस दिन जौ, गेहूं, चने, दही, चावल, खिचडी, गन्ने का रस, ठण्डाई व दूध से बने हुए पदार्थ, सोना, कपडे, जल का घडा आदि दें| इस दिन पार्वती जी का पूजन भी करना शुभ रहता है|
अक्षय तृतीया कथा-
प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था। उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना। कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमंड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ।
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