इस तरह से किरात बन गए वाल्मीकि




ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में प्रचेतस भी एक हैं। एक बार समस्त लोकों का संचार करते हुए सुरपुरी अमरावती की शोभा को निहारते हुए उन्होंने इंद्र सभा में प्रवेश किया। इंद्र ने दिक्पालकों के समेत आगे बढ़कर आदरपूर्वक प्रचेतस का स्वागत किया, 'अघ्र्य' पाद्य आदि से उनका उपचार किया। उनको प्रसन्न करने के लिए रंभा, ऊर्वशी, मेनका इत्यादि अप्सराओं के नृत्य-गान का प्रबंध किया। 

उन अनुपम सुंदरियों को देखते ही युवा प्रचेतस के मन में काम-वासना उद्दीप्त हुई, परिणामस्वरूप उनके वीर्य का स्खलन हुआ। वीर्य नीचे गिरते ही तत्काल एक बालक के रूप में प्रत्यक्ष हुआ। देव सभा के सदस्य इस अद्भुत दृश्य को विस्फारित नयनों से देखते ही रह गए। उसी समय बालक ने प्रचेतस को प्रणाम करके निवेदन किया, "पिताजी, मेरा उद्भव आपके वीर्य के पतन से हुआ है। इस कारण से मेरे पालन-पोषण का दायित्व आप ही का बनता है।"

बालक के वचन सुनकर इंद्रसभा के सभापद परस्पर कानाफूसी करने लगे। देव सभा में बालक द्वारा अपने रहस्य के प्रकट हुए देख प्रचेतस क्रोध में आ गए और उन्होंने कठोर स्वर में बालक को शाप दिया, "किरात बनकर क्रूर कृत्य करते हुए जीवनयापन करोगे। मेरी आंखों के सामने से हट जाओ। मैं तुम्हारा चेहरा तक देखना नहीं चाहता।"

बालक रुदन करते हुए प्रचेतस के चरणों पर गिरकर करुण स्वर में बोला, "पिताश्री, मेरा जन्म सार्थक है, मैं ऐसा ही मानता हूं। परंतु जन्म-धारण के साथ-ही-साथ अपने ही पिता के द्वारा शापित होना मैं अपना दुर्भाग्य ही समझूंगा। धर्मशास्त्र घोषित करते हैं कि शिष्य के अपराध गुरु और पुत्र के अपराध पिता क्षमा कर देते हैं। आप मेरे इस अपराध को क्षमा करके मुझे इस शाप से मुक्त होने का वरदान दीजिए।"

बालक का आक्रंदन सुनकर देवताओं के हृदय द्रवित हुए। सबने समवेत स्वर में उसे शापमुक्त करने का प्रचेतस से अनुरोध किया। इस पर प्रचेतस का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कहा, "पुत्र! तुम चिंता न करो। थोड़े दिन तक तुम किरातकर रहकर उसी पेशे में अपना जीवनयापन करोगे। इसके उपरांत तुम्हें कुछ महापुरुषों के अनुग्रह से एक दिव्य मंत्र प्राप्त होगा। उसी मंत्र के बल पर तुम अपनी आखेट-वृत्ति त्यागकर ब्रह्मर्षि बनोगे और तुम्हें शाश्वत यश प्राप्त होगा।"

प्रचेतस का आशीर्वाद पाकर बालक भूलोक में पहुंचा। किरातों की बस्ती में निवास करते हुए आखेट के द्वारा अपना पेट पालने लगा। कालक्रम में उसके कई बच्चे हुए। आखेट-वृत्ति के द्वारा परिवार को पालना जब सम्भव न हुआ तब उसने उस वन से गुजरनेवाले यात्रियों को लूटना आरम्भ किया।

कालचक्र के परिभ्रमण में अनेक वर्ष गुजर गए। एक बार सप्तर्षि तीर्थाटन के लिए निकले। किरात ने हुंकार करके उनका रास्ता रोका। उनको लूटने के लिए अनेक प्रकार से उन्हें यातनाएं देने लगा। ऋषियों ने समझाया, "बेटे, हम तो संन्यासी ठहरे। हम तो मूल्यवान वस्तुएं अपने पास नहीं रखते। दरअसल, हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है, हम सर्वसंग मरित्यागी हैं। हमें अपने रास्ते जाने दो। यह जीवन तो शाश्वत नहीं है। तुम अपना पेट पालने के लिए ऐसे पाप-कृत्य क्यों करते हो?"

महर्षियों के मुंह से हित वचन सुनकर किरात की हिंसा वृत्ति शांत हो गई। उसने विनीत स्वर में उत्तर दिया, "महानुभाव, मैं यह पाप केवल अपना पेट पालने के लिए नहीं कर रहा, अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के लिए मुझे ये कर्म करने पड़ रहे हैं।"

किरात के भोलेपन पर महर्षियों को हंसी आई। उसको अबोध मानकर ऋषियों ने समझाया, "तुम गृहस्थ हो और परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यह बात सही है, लेकिन तुम जो कुछ ले जाकर उन्हें दोगे, वही वे लोग खाएंगे, परंतु यह मत भूलो कि तुम्हारी कमाई के वे लोग अवश्य भागीदार होते हैं, तुम्हारे इन पाप-कृत्यों के नहीं।" 

किरात का हृदय दहल उठा। उसने सप्तर्षियों को उसके लौटने तक वहीं प्रतीक्षा करने की प्रार्थना की और लंबे डग भरते अपनी झोंपड़ी को लौट आया। खाली हाथ लौटे किरात को देख उसके परिवार वाले अचंभित थे। किरात ने गम्भीर स्वर में पूछा, "तुम लोग मेरी कमाई पर बंसी की चैन लेते हो। आराम से घर बैठे नाच-गान करते हो। लेकिन तुम लोग नहीं जानते कि मैं कैसे अत्याचार और अन्याय करके तुम लोगों का पेट पालता हूं, जिससे मैं पाप का भागीदार बनता हूं। अब बताओ, मेरे किए-कराए इस पाप में तुम लोग भी अपना हिस्सा बांटने को तैयार हो या नहीं?"

किरात की पत्नी और उसके बच्चों ने एक स्वर में बताया, "अरे! तुम भी कैसी ये अनर्गल बातें करते हो। पत्नी और बच्चों का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम हमारे प्रति कौन-सा बड़ा उपकार करते हो। यही बात थी तो तुमने शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? कोई सुने तो हंसे। जाओ, जल्दी हमारे खाने के लिए कुछ लेते आओ।"

पत्नी और बच्चों की बातें सुनकर किरात का दिल दहल गया। तत्काल वह सप्तर्षियों के पास लौटा, उनके चरणों पर गिरकर विनती करने लगा, "महानुभावों, आज मेरे भाग्यवश आप लोगों के दर्शन हुए। मेरा जीवन धन्य हो गया। आप लोग मुझ पर अनुग्रह करके इस पापपूर्ण पंक से मेरा उद्धार कीजिए।" किरात को अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते देख सप्तर्षि प्रसन्न हुए और उसको 'श्रीराम' मंत्र जपने का उपदेश दिया।

किरात के मन में विवेक जागृत हुआ। वह अपने परिवार को त्यागकर कंद-मूल और फलों का सेवन करते हुए, पवित्र नदियों में स्नान करते हुए श्रीराम तारक मंत्र का जाप करने लगा। अन्न-जल का उसे स्मरण तक न रहा। शन:-शनै: उसके चारों ओर वल्मीक बनता गया। उस पर पौधे उग आए। पेड़ बने, सरीसृप आदि जानवरों ने उस वल्मीकि पर अपना आश्रय बनाया, परंतु किरात को इस बात का भान तक न हुआ। वह तपस्या में निमग्न हो गया था।

अनेक वर्ष तीर्थाटन करके जब सप्तर्षि उसी वन से होकर अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे, तब उन्हें उस किरात का स्मरण हो आया। उन्होंने किरात का पता लगाया। "सप्तर्षियों! जिस किरात को आप लोग ढूंढ़ रहे हैं, वह एक तपस्वी बनकर आप लोगों के सामने दर्शित होने वाले वल्मीकि में है। वह इस समय ध्यानमग्न हैं।"

यह समाचार पाकर सप्तर्षि अमित आनंदित हुए और उन लोगों ने संपूर्ण हृदय से उस तपस्वी को आशीर्वाद दिया। "वल्मीकि के भीतर तपस्या में मग्न पुण्यात्मा वाल्मीकि महर्षि के नाम से विख्यात होंगे। श्रीमहाविष्णु स्वयं श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष हो इन्हें दर्शन देंगे और अपना चरित लिखने का आदेश देंगे। ये ऋषि कुल तिलक बनकर जगत के कल्याण का सूत्रधार बनेंगे।" इस प्रकार आशीर्वाद देकर सप्तर्षि अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। वही तपस्वी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रख्यात हुए और 'रामायण' की रचना करके आदिकवि कहलाए।

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