तो इस तरह लौटी महर्षि च्यवन की दृष्टि




पुराणों में महर्षि च्यवन का जन्म-वृत्तांत अत्यंत कौतूहलपूर्ण रीति में वर्णित है। महर्षि च्यवन महर्षि भृगु तथा पुलोमा के पुत्र थे। पुलोमा न केवल असाधारण रूपवती थी, बल्कि परम पतिव्रता भी थी। पुलोमा के अनुपम सौंदर्य पर आसक्त होकर उसके विवाह के पूर्व ही पुलोक नामक राक्षस उसका अपहरण करना चाहता था। 

वह कई बार प्रयत्न करके असफल रहा। पुलोमा के विवाह के बाद एक दिन महर्षि भृगु को आश्रम में न पाकर राक्षस पुलोम ने भृगु पत्नी का अपहरण करना चाहा। उस समय अग्निदेव पुलोमा की रक्षा करने के लिए आश्रम का पहरा दे रहे थे। राक्षस पुलोम ने अग्निदेव के समीप जाकर पूछा, "महाशय! यह बताइए कि क्या महर्षि भृगु और पुलोमा का विवाह वेद-विधि और शास्त्रोक्त पद्धति में संपन्न हुआ है?" 

अग्निदेव ने उत्तर दिया, "नहीं। मैं कभी असत्य वचन नहीं कह सकता।" इस पर राक्षस पुलोम सूअर का रूप धारण कर भृगु की पत्नी को उठा ले गया। उस समय भृगु की पत्नी पुलोमा पूर्ण गर्भवती थी। मध्य मार्ग में उसका प्रसव हुआ और शिशु पुलोमा के गर्भ से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ा। इसलिए वह च्यवन नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

शिशु के जन्म के समय जो तेज प्रकट हुआ, उस तेज की आंच में राक्षस पुलोम जलकर भस्म हो गया। ऋषि पत्नी पुलोमा विलाप करते हुए आश्रम को लौट आई। पुलोमा के नेत्रों से अविरल जो अश्रुधारा बह निकली, वह नदी के रूप में प्रकट हुई। उस नदी का नाम पड़ा- वधूसर। आश्रम लौटने पर भृगु को पुलोमा के अपहरण का समाचार मिला। अग्निदेव की असावधानी पर रुष्ट होकर भृगु ने उनको सर्वभक्षक बनने का शाप दे डाला।

बालक च्यवन बचपन से ही भक्ति-भाव रखता था। उसने सोचा कि तपस्या करके कोई महान कार्य संपन्न करना है। इस विचार से उसने निश्चल भाव से अन्न-जल भी त्यागकर तप करना आरंभ किया। कालांतर में उसके चारों तरफ वल्मीक यानी बाम्बियां निकल आईं। बाम्बियों के चतुर्दिक पौधे उग आए। लताओं से बाम्बियां ढक गईं। इन बाम्बियों के कटोरों में पक्षियों ने घोंसले बनाए।

एक दिन राजा शर्याति अपने परिवार के साथ वन-विहार करने निकल पड़े। राजकुमारी सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन-विहार करते उस बाम्बी के समीप पहुंची। उसने देखा, बाम्बी के चारों तरफ एक विचित्र प्रकाश फैला हुआ है। उसका कौतूहल बढ़ गया। वह प्रकाश बाम्बी के भीतर से कैसे फूट रहा था, इस रहस्य का पता लगाने के विचार से सुकन्या एक लकड़ी तोड़कर बाम्बी को खोदने लगी।

बाम्बी के भीतर से उसे ये शब्द सुनाई पड़े "बाम्बी मत खोदो। यहां से चले जाओ।" सुकन्या विस्मय में आ गई। उसकी जिज्ञासा दुगुनी हो गई, लेकिन अगले ही क्षण उसने देखा, नक्षत्रों की भांति दो ज्योतियां दमक रही हैं। उनका परीक्षण करने के ख्याल से सुकन्या ने उन प्रकाश बिंदुओं में पतली छड़ी घुसेड़ दी। तत्काल भीतर से रक्त के छींटे छितरा गए। राजकुमारी भयभीत हो अपनी सखियों के साथ वहां से भाग गई।

वास्तव में, प्रकाश की बिंदुएं तपस्या में रत च्यवन की आंखें थीं। च्यवन को अपार पीड़ा हुई। फिर भी वे क्रुद्ध नहीं हुए। निश्चल भाव से पतस्या में समाधिस्थ रहे। परंतु उधर राजा शर्याति के राज्य में नाना प्रकार के उपद्रव प्रारंभ हुए। जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। भयंकर व्याधियों का प्रकोप हुआ। मल-मूत्र तक स्तंभित हो गए। 

मनुष्य, पशु और पक्षी भी व्याधिग्रस्त हुए। राजा का मन व्याकुल हो उठा। इन उत्पातों का कारण राजा की समझ में न आया। अकारण राज्य में हलचल मच गई। राजा ने मंत्री, सलाहकार तथा ज्योतिषों को बुलवाकर इन उत्पातों का कारण जानना चाहा, परंतु कोई भी सही समाधान नहीं दे पाए।

राजकुमारी सुकन्या बड़ी बुद्धिमती थी। उसके मन में संदेह हुआ कि कहीं ये सब उत्पात उसकी करनी का फल हो। उसने राजा को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, "पिताजी, मैं समझती हूं कि इन सारे उपद्रवों का कारण मैं ही हूं।" राजा शर्याति विवेकशील पुरुष थे। उन्होंने तत्काल वल्मीक के पास जाकर बड़ी सावधानी से बाम्बी को तुड़वा दिया। तपस्वी च्यवन के चरणों में प्रणाम करके अपनी पुत्री के इस अकृत्य के लिए राजा ने क्षमायाचना की।

च्यवन ने कहा, "राजन! मेरे साथ जो अत्याचार हुआ है, उसका प्रायश्चित केवल यही होगा कि आप अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करें।" च्यवन का उत्तर सुनकर राजा आपादमस्तक कांप उठे। दरअसल, च्यवन वृद्ध हो गए थे, तिस पर कुरूपी और अंधे थे। जुगुप्सा पैदा करनेवाले ऐसे विकृत पुरुष के साथ लावण्यमयी सुशीला और बुद्धिमती कन्या का विवाह! यह सर्वदा असंभव है। यही विचार करके राजा व्यथित हो राजमहल को लौट आए।

राजकुमारी सुकन्या को जब यह समाचार मालूम हुआ, तो उसने च्यवन के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। राजा ने विवश होकर सुकन्या का विवाह च्यवन के साथ कर दिया।

विवाह के बाद सुकन्या च्यवन के साथ चली गई। वह बड़ी श्रद्धा-भक्ति से पति की सेवा में लगी रही। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती थी। एक दिन सुकन्या नदी से पानी भरकर अपने निवास को लौट रही थी। रास्ते में अश्विनी देवताओं से उसकी भेंट हुई। अश्विनी देवताओं ने सुकन्या के सौंदर्य की प्रशंसा के साथ च्यवन की अवहेलना की और आग्रह किया कि उन दोनों में से किसी एक के साथ वह विवाह करे। यह प्रलोभन भी दिया कि उनके साथ विवाह करने पर उसे सभी प्रकार के सुख-भोग प्राप्त होंगे। इस पर सुकन्या ने उनके इस व्यवहार की कड़ी निंदा की और उन्हें समझाया कि इस प्रकार का प्रस्ताव रखना उन्हें शोभा नहीं देता।

सुकन्या के मुंह से हित वचन सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले, "हमें अश्विनी देवता कहते हैं और हम देवताओं के वैद्य हैं। आप चाहेंगी तो हम आपके पति को पुन: दृष्टि दिलाकर उनको यौवन प्रदान कर सकते हैं, किंतु हमारी एक शर्त है। आपके पति के यौवन प्राप्त करने के बाद आपके सामने तीन युवक प्रत्यक्ष होंगे। तीनों के रूपरंग, नाक-नक्श एक ही प्रकार के होंगे। उनमें से किसी एक को आपको अपने पति के रूप में चयन करना होगा।"

सुकन्या ने यह वृत्तांत अपने पति को सुनाया। च्यवन ने सुकन्या को सलाह दी कि वह अश्विनी देवताओं की शर्त मान ले। इसके बाद अश्विनी देवता और च्यवन पानी में डुबकी लगाकर एक ही प्रकार के युवकों के रूप में बाहर निकले। सुकन्या ने महादेवी से प्रार्थना की कि उसे अपने पति को पहचानने का विवेक प्रदान करें।

महादेवी का अनुग्रह पाकर सुकन्या ने अपने पति को पहचान लिया। च्यवन ने दृष्टि और यौवन पाकर अश्विनी देवताओं से निवेदन किया, "आपने मुझ पर अनुग्रह किया, इसके लिए मैं आपके प्रति हृदय से आभारी हूं। इसके प्रत्युपकार में मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?"

अश्विनी देवताओं ने यज्ञों में सोम भांड दिलाने का आग्रह किया। तपस्वी च्यवन ने अपने श्वसुर राजा शर्याति के द्वारा यज्ञ करवाकर अश्विनी देवताओं को आमंत्रित किया। उस समय सुरपति इंद्र ने सोमपान पर निषेध किया और आदेश दिया कि यज्ञ के समय अश्विनी देवताओं को सोम भांड नहीं दिया जाए। इस पर च्यवन इंद्र के इस आदेश का विरोध करके उनके साथ युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हुए। 

इंद्र ने च्यवन का संहार करने के लिए अपने वज्रायुध का प्रयोग करना चाहा, च्यवन ने रुष्ट होकर हुंकार करके इंद्र को ललकारा। इंद्र एकदम स्तंभित हो गए। उसी समय च्यवन ने होम-कुंड से मधु नामक एक राक्षस की सृष्टि की। उसने देवताओं पर आक्रमण करके यज्ञ-भूमि से उनको भगाया। इंद्र स्तंभित थे, इसलिए वे यज्ञ-भूमि से हिल-डुल नहीं सकते थे। उन्होंने देवगुरु बृहस्पति के प्रति प्रार्थना की। 

बृहस्पति ने इंद्र को सलाह दि कि वे च्यवन के समक्ष पराजय स्वीकार करें। इंद्र ने च्यवन के समक्ष नतमस्तक हो उनकी रक्षा करने की प्रार्थना की। तब च्यवन ने मधु को चार भागों में विभाजित किया और उन चार भागों को जुए, आखेट, मद्य और महिला में निक्षेपित किया। इस प्रकार च्यवन ने समस्या का समाधान कर लिया।

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