कई शताब्दियां गुजर गईं, लेकिन आज भी सर्वत्र एक साधारण भक्त की कहानी कही-सुनी जाती है। बात उन दिनों की है जब चोल राजा कांचीपुर को अपनी राजधानी बनाकर राज्य किया करते थे। वे बड़े प्रतापी और पुण्यात्मा थे। जनता को अपनी संतान की तरह मानकर सदा उनके सुख-दुख का ख्याल रखते थे। यज्ञ कराते थे। जनता के कल्याण के लिए सब प्रकार के पुण्य कार्य किया करते थे। जनता की भी चोल राजा पर अत्यंत श्रद्धा-भक्ति थी।
चोल राजा न सिर्फ एक उत्तम शासक, बल्कि एक पहुंचे हुए भक्त भी थे। उनके आराध्य देव थे श्री महाविष्णु। ताम्रपर्णी के तट पर चोल राजा ने यज्ञ पशुओं को बांधने के लिए सोने के जो स्तंभ बनवाए थे, उनकी चर्चा दूर-दराज के प्रदेशों में भी होती थी।
एक बार चोल राजा विष्णु मंदिर में पूजा-अर्चना करने गए। मंदिर के सरोवर में स्नान किया। सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया, उसके बाद श्री महाविष्णु को उपहार के रूप में वज्र, वैदूर्य वगैरह रत्न भेंट किए। पंच भक्ष्यों का नैवेद्य चढ़ाया। भक्तिभाव से भगवान के सामने साष्टांग दंडवत किया। उसी समय विष्णुदास नामक एक अति दरिद्र विष्णु मंदिर में पहंचा। उसने तुलसी दल व फूलों से विष्णु की पूजा की। नैवेद्य के रूप में कुछ फल समर्पित किए।
चोलराज विष्णुदास की पूजा का ढंग देखते रहे। उनको विष्णुदास का पूजा-विधान अच्छा न लगा। अपने आराध्यदेव सर्वशक्तिमान श्री महाविष्णु का इस तरह अनादर होते उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने क्रोध में आकर उस दरिद्र भक्त को पास बुलाकर पूछा, "सुनो, तम नहीं जानते कि किस तरह भगवान की पूजा-अर्चना की जाती है। उस पर तुम दरिद्र भी हो। मैंने भगवान की पूजा-अर्चना स्वर्ण पुष्पों से की, उनकी दिव्य मूर्ति के सामने विविध प्रकार के रत्न समर्पित किए। तुमने तो पत्ते, फूल और टहनियों से उन्हें ढंक दिया और उन्हें साधारण फल समर्पित किए। इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?"
इसके बाद राजा अपनी पूजा खत्म कर रथ पर आरूढ़ हो राजमहल को लौट गए। इस घटना के थोड़े दिन बाद महर्षि मौदगल्य के नेतृत्व में यज्ञ प्रारंभ हुए। कांचीपुर अलंकृत किया गया। चारों ओर जनता की भीड़ उमड़ पड़ी, सारे नगर में चहल-पहल थी। मेले जैसे उत्सव का उत्साह उमड़ रहा था। जनता ने भी भगवान की कई तरह से पूजा-अर्चना की। महाराज का यश चारों तरफ फैल गया। लेकिन दरिद्र विष्णुदास अपने सामथ्र्य के मुताबिक भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा-अर्चना में लीन रहा। क्षण प्रति-क्षण वह विष्णु का स्मरण करता रहा।
एक दिन विष्णुदास के घर में एक विचित्र बात हुई। रोज की तरह पूजा-अर्चना समाप्त कर विष्णुदास ने भोजन बनाया, भगवान को नैवेद्य चढ़ाने के लिए उसने भोजन समर्पित करना चाहा। लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि अचानक सभी पदार्थ नदारद हो गए। एक ओर उसके मन को यह चिंता खाए जाए जा रही थी कि वह आज स्वामी को नैवेद्य नहीं चढ़ा पाया, दूसरी ओर यह कि फिर से रसोई बनाकर नैवेद्य चढ़ाया चाहे तो संध्या वंदन के लिए पर्याप्त समय न होगा। इसलिए उस दिन स्वामी के साथ विष्णुदास को भी भोजन नहीं मिला।
दूसरे दिन रसोई बनाकर विष्णुदास पूजा करने के लिए मंदिर में पहुंचा। पूजा-अर्चना समाप्त कर घर लौटा। भोजन करने के पूर्व स्वामी को नैवेद्य चढ़ाना चाहा तो उस दिन भोजन पदार्थ नदारद थे। विष्णुदास की समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसी माया है। तीसरे व चौथे दिन भी इसी प्रकार उसके भोजन-पदार्थ अदृश्य हो गए।
विष्णुदास ने मन में निश्चय कर लिया कि इस बात का पता लगाया चाहिए कि रोजना भोजन पदार्थ कैसे अदृश्य हो रहे हैं। पांचवें दिन रसोई बनाकर विष्णुदास ने पात्रों में रख दिया और अपने कमरे के एक कोने में छिपकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद वहां पर एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति आया। वह इतना दुर्बल था कि देखने में ऐसा लगता था कि मानों कोई कंकाल ही जान पाकर चल रहा हो। उसकी देह पर चीथड़े लटक रहे थे।
वह कुछ सहमा व डरा हुआ-सा लग रहा था। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते ताबड़-तोड़ उसने सारे भोजन पदार्थ समेटकर एक गठरी बांध ली। थोड़ा चखकर देखा। एक खंभे के पीछे दुबककर बैठा। विष्णुदास यह सारा दृश्य देख रहा था। उस बूढ़े पर विष्णुदास को दया आ रही थी। विष्णुदास से रहा नहीं गया। उसने बूढ़े से कहा, "महाशय, थोड़ा रुक जाओ। केवल सब्जी-दाल से भोजन पूरा न होगा, मैं अभी घी और दही ला देता हूं। रुक जाओ।" यह कहकर विष्णुदास बूढ़े की ओर बढ़ा। लेकिन विष्णुदास को देखते ही बूढ़ा घबरा गया और भागने लगा। पैर में ठोकर खाकर वह नीचे गिर पड़ा। उसके बदन पर चोट लगी। वह कराहने लगा।
विष्णुदास ने दौड़कर उसको हाथ का सहारा देकर ऊपर उठाया। पानी पिलाकर उसने शाल से बूढ़े के मुंह पर हवा करने लगा। इसके बाद आंखें मूंदकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, "हे भगवान! बेचारे इस बूढ़े को स्वस्थ करो। इसे अन्न-जल की कोई कमी न हो, ऐसा वरदान दो।" अपनी प्रार्थना खत्म कर विष्णुदास ने आंखें खोलीं तो देखता है कि उसके समक्ष शंख, चक्र, गदा व खड्गधारी साक्षात श्री महाविष्णु खड़े मंद-मंद मुस्का रहे थे।
विष्णुदास को आश्चर्य हुआ। उसके बाद वह मुग्ध होकर उस अनंत दिव्य रूप को निहारता ही रह गया। उसके आश्चर्य और आनंद की कोई सीमा न रही। उसकी आंखों में आनंद के आंसू झलक उठे। अपने दोनों हाथ जोड़कर विष्णुदास ने विनम्र भाव से परमात्मा की स्तुति की। परमात्मा विष्णुदास की भक्ति पर प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भक्त को हाथ का सहारा देकर अपने दिव्य विमान में चढ़ाया और अपने साथ दिव्य धाम को ले गए।
चोल राजा को जब यह समाचार मिला तब उनमें ज्ञानोदय हुआ। उन्होंने समझ लिया कि ईश्वर का अनुग्रह पाने के लिए निश्चय ध्यान व समस्त मानव के हृदय में परमात्मा के दर्शन करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। केवल वाह्यआडम्बर और मूल्यवान उपहारों से परमात्मा प्रसन्न नहीं होते। उस दिन से राजा ने निश्छल भाव से पत्रं-पुष्पं से ईश्वर की आराधना शुरू कर दी।
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