यहाँ पुरखों के मोक्ष के लिए होता है 'मत्स्य भोज'





इलाका एक, परम्पराएं अलग-अलग। यह आलम है बुंदेलखंड का। पितृपक्ष में एक इलाके के लोग पुरखों के मोक्ष के लिए 'कौआ भोज' करते हैं तो वहीं एक इलाका ऐसा भी है, जहां के लोग बेतवा नदी में 'मत्स्य भोज' आयोजित कर अपने पुरखों के मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं। यहां लोक मान्यता है कि पुरखे 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और मछलियों को आटे की पिंडी दान करने से उनका 'मानवावतार' होगा। ककरीले-पथरीले बुंदेलखंड में कई पुरानी परम्पराएं ऐसी हैं जो अंधविश्वास की ओर इशारा करती हैं। यहां के रीति-रिवाज भी जुदा हैं। अब आप पितृपक्ष को ही ले लीजिए, धर्मनगरी चित्रकूट के आस-पास के बांदा और महोबा व हमीरपुर में पुरखों के मोक्ष के लिए श्राद्ध के दिन 'कौआ भोज' आयोजित करने की सदियों पुरानी परम्परा चली आ रही है तो जालौन जिले के उरई इलाके में लोग श्राद्ध के दिन परासन गांव के बेतवा नदी के घाट पर तड़के पहुंचकर 'मत्स्य भोज' कराते हैं। 





इस इलाके में लोक मान्यता है कि पूर्वज यहां 'मत्स्यावतार' में आकर दर्शन देते हैं और नदी की भारी भरकम मछलियों को पानी में गुंथे आटे की पिंडी दान करने से पुरखे 'मत्स्यावतार' से मुक्त होकर 'मानवावतार' में शीघ्र जन्म लेते हैं।





परासन गांव को महाभारत कालीन महर्षि पाराशर का जन्म स्थान माना जा रहा है। यह गांव बुंदेलखंड के जालौन जनपद के उपजिला उरई में आटा रेलवे स्टेशन की कुछ दूरी पर बेतवा नदी के किनारे बसा हुआ है। यहां आस-पास के दर्जनभर गांवों के लोग एक पखवाड़े तक चलने वाले पितृपक्ष में रोजाना अपने पूर्वजों के श्राद्ध के दिन तड़के पहुंचकर जलतर्पण के बाद मछलियों को गुंथा आटा खिलाते हैं। इलाकाई लोगों का मानना है कि पुरखे यहां पखवाड़ा भर 'मत्स्यावतार' में हाजिर में होकर अपने वंश को दर्शन देते हैं। 





इस गांव के रहने वाले पंडित किशनलाल बताते हैं, "इस क्षेत्र की यह बहुत पुरानी परम्परा है। तड़के से ही बेतवा नदी के घाट पर जलतर्पण के बाद पूर्वजों के मोक्ष के लिए 'मत्स्य भोज' कराने की होड़ लग जाती है। लोग अपने साथ घरों से सूखा आटा लेकर आते हैं और नदी के पानी में गूंथ पिंडी बनाकर मछलियों को खिलाते हैं।"





वह कहते हैं कि इस परम्परा की शुरुआत के बारे में कोई अभिलेखीय साक्ष्य मौजूद नहीं है, पर लोक मान्यता है कि पुरखे यहां पितृपक्ष में 'मत्स्यावतार' में आते हैं और अपने वंश को दर्शन और आशीर्वाद देते हैं। बकौल किशनलाल, "मत्स्य भोज कराने से पूर्वज मत्स्यावतार से मुक्त होकर मानवावतार में शीघ्र जन्म लेने की मान्यता प्रचलित है।" इसी गांव के पूर्व जिला पंचायत सदस्य करन सिंह बताते हैं कि लोक मान्यता कुछ भी हो, पर पितृपक्ष में इस घाट में हजारों की तादाद में भारी भरकम मछलियां मौजूद रहती हैं और उनका शिकार करने पर प्रतिबंध लगा रहता है, जबकि सालभर एक भी मछली नहीं दिखाई देती।





उरई से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक दयाशंकर वर्मा कहते हैं, "यह अंधविश्वास से जुड़ी आस्था है, आस्था ही परम्परा में बदल जाती है जिसके सामाजिक रूप को दरकिनार नहीं किया जा सकता।" कुल मिलाकर पितृपक्ष में कहीं 'कौआ भोज' तो कहीं 'मत्स्य भोज' आयोजित कर बुंदेली अपने पुरखों को मोक्ष दिलाने की कामना करते हैं, जबकि तल्ख सच्चाई यह है कि कई परिवारों में तमाम जीवित बुजुर्ग दो वक्त की रोटी को तरस रहे हैं, उन्हें उनके बेटे एक बूंद पानी तक देने को तैयार नहीं हैं।





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