बिहार के पूर्णिया जिले में 'नील कोठी' के अवशेष आज भी मौजूद हैं, जहां कभी अंग्रेज प्रशासक नील तैयार करवाते थे। अब यहां के किसान संसाधनहीन होने के कारण हालांकि उन्नत खेती भी नहीं कर पा रहे हैं। इतिहासकारों के मुताबिक, अंग्रेज प्रशासक मेक्स इलटे ने पूर्णिया जिले के बड़हरा कोठी प्रखंड में किसानों पर दबाव बनाकर वर्ष 1769 में 1400 एकड़ में नील की खेती शुरू करवाई थी। इसके बाद नील की खेती के लिए उपयुक्त इस जमीन पर उनका व्यापार बढ़ता चला गया।
एक बुजुर्ग सत्यनारायण तिवारी ने बताया कि वर्ष 1775 में अंग्रेजों ने यहां 'काझा कोठी' का निर्माण करवाया और यहीं से वे दूर-दूर तक फैली नील की खेती को देखते थे। उन्होंने बताया कि इस प्रखंड क्षेत्र में तब 1400 एकड़ में नील की खेती होती थी। उनकी बातों को सच मानें तो यहां प्रतिवर्ष चार सौ मन (एक मन बराबर 37.500 किलोग्राम) से ज्यादा नील तैयार होता था।
नील खेती के स्मारक स्थल बड़हरा कोठी और काझा कोठी को प्रशासन द्वारा स्थानीय स्तर पर एक दर्शनीय स्थल का रूप दिया गया है। काझा कोठी के विशाल तालाब के किनारे नववर्ष के अवसर पर जिले के दूर-दूर से लोग पिकनिक मनाने पहुंचते हैं। वहीं बड़हरा कोठी पूर्णियां के धमदाहा प्रमंडल का एक ऐतिहासिक और स्थानीय पर्यटन स्थल है। इसे भी स्थानीय प्रशासन ने सुंदर रूप देने की कोशिश की है और तालाब के किनारे पेड़-पौधे तथा रंग-बिरंगे फूल लगाए गए हैं।
काझा कोठी और बड़हारा कोठी देखने की इच्छा रखने वालों को पूर्णियां से बड़हरा जाने वाली बस पर बैठना चाहिए। पूर्णियां से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर काझा कोठी है, जहां तक पहुंचने में बस से मुश्किल से आधा घंटा लगता है। यही बस आगे बड़हरा कोठी तक जाती है। बड़हरा कोठी बड़हरा ब्लॉक कॉलोनी के पास है।
तिवारी ने बताया कि खेत में उपजे नील को बंगला के सामने ही बड़े-बड़े कड़ाह में डाल कर गर्म किया जाता था और शुद्ध नील तैयार किया जाता था। यही कारण है कि मेक्स इलटे की कोठी को ही 'नील कोठी' के नाम से पुकारा जाने लगा था। वैसे नील कोठी के नाम पर अब कुछ खास नहीं बचा है, परंतु कुछ दीवारों के अवशेष लोगों को नील कोठी की याद दिलाते हैं।
ग्रामीण अखिलेश कुमार बताते हैं कि आज भी नील कोठी में बड़े-बड़े कड़ाह मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि जिस चूल्हे पर नील के कड़ाह को गर्म किया जाता था उसका भी अस्तित्व इस कोठी में आज देखा जा सकता है। नील कोठी हालांकि अब खंडहर हो गया है, परंतु आज भी यहां आने वाले लोगों में इस कोठी को देखने की उत्सुकता जरूर होती है।
कुमार बताते हैं कि नील की सफाई करने के बाद जो पानी निकलता था उसके लिए एक तालाब का निर्माण करवाया गया था, जो आज भी मौजूद है। उन्होंने बताया कि इस प्रखंड क्षेत्र में करीब 80 वर्षो तक नील की खेती चली थी। अंग्रेजी शासन काल में ही धीरे-धीरे नील की खेती बंद हो गई। वे कहते हैं कि स्थानीय लोगों ने नील कोठी की ईंटें भी निकाल लीं, जिस कारण अब दीवारों का अस्तित्व भी समाप्त होने के कगार पर है।
ग्रामीण बुजुर्ग परमेश्वर तिवारी बताते हैं कि अंग्रेज यहां से तैयार नील नागौर नदी तथा कदईधार नदी से नाव द्वारा शहरों में भेजते थे। तिवारी की मानें तो प्रारंभ में यहां के किसान नील की खेती करने को तैयार नहीं थे, फिर भी अंग्रेज जबरन उनसे यह सब करवाते थे। बाद में मुनाफा होने पर किसान स्वयं नील की खेती से जुड़ते चले गए। यही वजह है कि यह क्षेत्र उस समय काफी समृद्ध था, मगर अब यहां के किसान पिछड़े हुए हैं।
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