बेटे की लंबी उम्र के लिए रखें अहोई अष्टमी का व्रत



कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है|
पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह व्रत
व पूजन संतान व पति के कल्याण हेतु किया जाता है| माताएं अहोई अष्टमी के
व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय अहोई
माता का का पूजन किया जाता है। तारों को करवा से अर्ध्य भी दिया जाता है।
इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस
के भेजे धोबी का वध करते प्रदर्शन किया जाता है। इस वर्ष अहोई अष्टमी का
व्रत 26 अक्टूबर दिन शनिवार को मनाया जायेगा| कहते हैं कि जिन्हें संतान
का सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो उन्हें अहोई अष्टमी व्रत अवश्य करना
चाहिए क्योंकि संतान प्राप्ति हेतु अहोई अष्टमी व्रत अमोघफल दायक होता है|
इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए| इसके
साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास
को उपहार स्वरूप देना चाहिए| शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस
में वितरित कर देना चाहिए सच्ची श्रद्धा के साथ किया गया यह व्रत शुभ फलों
को प्रदान करने वाला होता है|



अहोई अष्टमी व्रत विधि-



संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है इसलिये
इसे केवल माताएं ही करती है| इस व्रत को रखने वाली माताएं प्रात: काल उठकर
स्नान आदि करके अहोई माता का चित्रांकन करें| चित्रांकन में ज्यादातर आठ
कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास सेह तथा उसके बच्चों की
आकृतियां बना दी जाती हैं। उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अहोई माता
का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की
महिलाएं चांदी की अहोई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना
होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है।
तत्पश्चात एक पाटे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। तारे निकलने
पर इस व्रत का समापन किया जाता है| तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है.
और तारों की आरती उतारी जाती है| इसके पश्चात संतान से जल ग्रहण कर, व्रत
का समापन किया जाता है|



पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु व सुखमय जीवन हेतू कामना करें और
माता अहोई से प्रार्थना करें, कि हे माता मैं अपनी संतान की उन्नति, शुभता
और आयु वृ्द्धि के लिये व्रत कर रही हूं, इस व्रत को पूरा करने की आप मुझे
शक्ति दें| यह कर कर व्रत का संकल्प लें| एक मान्यता के अनुसार इस व्रत को
करने से संतान की आयु में वृ्द्धि, स्वास्थय और सुख प्राप्त होता है| साथ
ही माता पार्वती की पूजा भी इसके साथ-साथ की जाती है| क्योकि माता पार्वती
भी संतान की रक्षा करने वाली माता कही गई है|



अहोई अष्टमी व्रत कथा-



प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे।
दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती हेतु मिट्टी लेने खदान
में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैव योग से उसी जगह एक सेह की मांद
थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल सेह के बच्चे को लग गई जिससे सेह का
बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को
बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था? वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई
अपने घर लौट आई। कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात
दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत
व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए
बताया कि उसने जान-बूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। हाँ, एक बार खदान में
मिट्टी खोदते हुए अंजाने में उससे एक सेह के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है
और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई।



यह सुनकर पास-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए
कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप
नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेह और सेह के
बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा
से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात
मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह
हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्र रत्नों की
प्राप्ति हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।



इसके अलावा एक और काठ प्रचलित है जो इस प्रकार है, प्राचीन काल में दतिया
नगर में चंद्रभान नाम का एक आदमी रहता था। उसकी बहुत सी संतानें थीं, परंतु
उसकी संताने अल्प आयु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगती थीं। अपने
बच्चों की अकाल मृत्यु से पति-पत्नी दुखी रहने लगे थे। कालान्तर तक कोई
संतान न होने के कारण वह पति-पत्नी अपनी धन दौलत का त्याग करके वन की ओर
चले जाते हैं और बद्रिकाश्रम के समीप बने जल के कुंड के पास पहुंचते हैं
तथा वहीं अपने प्राणों का त्याग करने के लिए अन्न-जल का त्याग करके उपवास
पर बैठ जाते हैं। इस तरह छह दिन बीत जाते हैं तब सातवें दिन एक आकाशवाणी
होती है कि, हे साहूकार! तुम्हें यह दुख तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप से मिल
रहे है।



अतः इन पापों से मुक्ति के लिए तुम्हें अहोई अष्टमी के दिन व्रत का पालन
करके अहोई माता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, जिससे प्रसन्न हो अहोई माता
तुम्हें पुत्र प्राप्ति के साथ-साथ उसकी दीर्घ आयु का वरदान देंगी। इस
प्रकार दोनों पति-पत्नी अहोई अष्टमी के दिन व्रत करते हैं और अपने पापों की
क्षमा मांगते हैं। अहोई मां प्रसन्न हो उन्हें संतान की दीर्घायु का वरदान
देती हैं। आज के समय में भी संस्कारशील माताओं द्वारा जब अपनी सन्तान की
इष्टकामना के लिए अहोई माता का व्रत रखा जाता है और सांयकाल अहोई मता की
पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से इसका शुभफल उनको मिलता ही है और सन्तान
चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसको भी निश्कंटक जीवन का सुख मिलता है। 






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