वक्त की मार बहुत बुरी होती है, यकीन न हो तो बुंदेलखंड में गरीबों की थाली
में झांककर देखिए, जहां पेट की आग बुझाने के लिए भटक रहे 'गरीब-गुरबा'
जंगली चारा 'पसही' का चावल खा बसर कर रहे हैं। इस चारा के चावल से तीन माह
तक अपनी जीविका चलाने वाले सैकड़ों परिवार हैं।
तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी बुंदेलखंड से गरीबी और मुफलिसी का
दाग मिटा नहीं है और न ही दैवीय त्राशदी में कमी ही आई। इसकी जीती-जागती
उदाहरण हैं बांदा जिले के महोतरा गांव की अस्सी साल की वृद्धा गोढ़निया और
तेंदुरा गांव की नेत्रहीन महिला बुधुलिया जो अपनी भूख अनाज से नहीं, बल्कि
जंगली चारा 'पसही' के चावल से मिटाती हैं।
ऐसा भी नहीं है कि
ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी योजनाएं न चल रही हों, लेकिन गोढ़निया और
बुधुलिया जैसे सैकड़ों गरीब ऐसे हैं जिन्हें इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल
रहा।
महोतरा गांव की 80 साल की नि:संतान गोढ़निया बताती है कि उसे न
तो सरकारी राशन कार्ड मिला और न ही भरण-पोषण के लिए पेंशन ही। वह बताती है
कि रबी और खरीफ की फसल की कटाई के समय 'सीला' (खेत में बिखरी हुई अनाज की
बाली) चुनकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करती है और इस समय जलमग्न जमीन में
उगे जंगली चारा पसही का धान एल्युमीनियम की थाली के सहारे धुनकर लाती है और
उसके कूटने से निकला चावल ही पेट की आग बुझाने का जरिया है।
इसी
गांव का बुजुर्ग मनोहरा बताता है कि इस गांव के आधा सैकड़ा अनुसूचित वर्गीय
लोग तड़के टीन और बांस से बनी लेंहड़ी के सहारे पसही का धान धुन रहे हैं
और इसके चावल से करीब तीन माह तक अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।
तेंदुरा
गांव की नेत्रहीन महिला बुधुलिया का पति बंधना पैर से विकलांग है, उसके
तीन साल की एक बेटी है। यह विकलांग दंपति भी भूख से तड़प रहा है। नेत्रहीन
बुधुलिया अपने पड़ोस की बुजुर्ग महिलाएं रमिनिया, कौशल्या, नथुनिया और जहरी
के साथ शाम-सबेरे थाली या लेंहड़ी के सहारे पसही के धान धुन कर लाती है और
उसके चावल से पेट भरती है।
बुधुलिया बताती है कि उसे गरीबी रेखा
का राशन कार्ड तो मिला हुआ है, पर सरकारी दुकान से अनाज खरीदने के लिए एक
धेला (रुपया) नहीं है। ऐसी स्थिति में पसही के चावल से बसर करना मजबूरी है।
इस
गांव के ग्राम प्रधान धीरेंद्र सिंह ने बताया कि गांव में करीब एक सौ बीघा
जलमग्न वाले भूखंड़ों में जंगली चारा पसही उगी हुई है और करीब पांच दर्जन
गरीब इसका धान इकट्ठा कर रहे हैं। इस जंगली चारा पसही के बारे में एक
स्थानीय कृषि अधिकारी का कहना है कि जलमग्न भूमि में उगने वाला पसही चारा
धान की ही अविकसित प्रजाति है, जिसका चावल संशोधित प्रजाति से कहीं ज्यादा
स्वादिष्ट और सुगंधित होता है।
इस अधिकारी के मुताबिक, इस चावल की
बाजार में कीमत भी काफी ज्यादा है। पनगरा गांव के बुजुर्ग ब्राह्मण बलदेव
दीक्षित तो इस जंगली धान को सीता प्रजाति का धान बता रहे हैं। वह बताते हैं
कि भगवान श्रीराम द्वारा देवी सीता का परित्याग किए जाने के बाद जब महर्षि
बाल्मीकि के आश्रम में बेटे लव और कुश भूख से तड़प रहे थे, उस समय सीता ने
अपनी शक्ति से एक पोखरा में पसही धान को पैदा किया था।
उन्होंने
बताया कि पसही के चावल को सीताभोग के नाम से भी जाना जाता है और महिलाएं
उपवास व निर्जला व्रत के दौरान इसी का पारन (भोजन) करती हैं। गैर सरकारी
संगठन (एनजीओ) से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश रैकवार का कहना है कि
बुंदेलखंड के जलमग्न इलाके में रहने वाले सैकड़ों गरीब परिवार ऐसे हैं जो
मुफलिसी की वजह से जंगली धान से जीवन यापन कर रहे हैं।
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