अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल सिर्फ भारत के महान क्रान्तिकारी व अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं थे बल्कि वह उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक और साहित्यकार भी थे| बिस्मिल ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी|
बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर में हुआ था| बिस्मिल मूलमती और पं. मुरलीधर की दूसरी संतान थे| बिस्मिल जब छोटे थे तब उनके हाथ की दसों उंगलियों में चक्र और जन्म-कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यदि ये बालक जीवित रहता है तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती| बिस्मिल के माता-पिता भगवान श्री राम की पूजा करते थे इसीलिए उन्होंने अपने बेटे का नाम रामप्रसाद रखा| 'बिस्मिल' उनका उर्दू उपनाम था, जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'आत्मिक रूप से आहत'| बिस्मिल से पहले उनके माता-पिता ने एक संतान खो दिया था इसलिए उनके जन्म के समय जादू-टोने का भी सहारा लिया गया|
हजार पर एक खरगोश लाया गया और बिस्मिल के ऊपर से उतार कर आंगन में छोड़ दिया गया| खरगोश ने आंगन के दो-चार चक्कर लगाये और थोड़ी देर बाद उसकी मौत हो गई| हालांकि, ये जानकर आपको आश्चर्य होगा लेकिन यह एक सच्ची घटना है| इस बात का उल्लेख बिस्मिल ने अपने पुस्तक में किया था| बिस्मिल के अतिरिक्त वह 'राम' और 'अज्ञात' के नाम से भी लेख और कविताएं लिखते थे| बिस्मिल जब 19 साल के थे तब उन्होंने क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था| क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखी, जिसमे से 11 पुस्तक उनके जीवन काल में प्रकाशित भी हुईं| हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने उन पुस्तकों को जब्त कर लिया था|
वैसे तो बिस्मिल को बड़े ही लाजों से पाला गया लेकिन जब भी वह अक्षर लिखने में गलती करते उनकी खूब पिटाई होती थी| इसके बाद भी बिस्मिल में चंचलता व उद्दण्डता कम न थी| उन्हें जैसे ही मौका मिलता था वह तुरंत बगीचे में घुस जाते थे और जमकर उत्पात मचाते थे| बिस्मिल का मन खेलने में ज्यादा और पढ़ाई में कम लगता था| इस बात से नाराज़ उनके पिता उनकी जमकर पिटाई करते थे, इसके बाद भी वह किसी की नहीं सुनते|
बिस्मिल के बाल्यकाल की जो सबसे दिलचस्प बात थी वह यह कि उनके पिता ने उन्हें हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु 'उ' से 'उल्लू' न तो उन्होंने पढना सीखा और न ही कभी लिखकर दिखाया क्योंकि वह इस शब्द का विरोध करते थे और बदले में पिता की मार खाते थे| हारकर उन्हें उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया| बिस्मिल अपने विचारों के बचपन से ही पक्के थे|
बिस्मिल जब 14 साल के थे तब उन्हें अपने पिता के संदूक से पैसे चुराने की लत पड़ गई थी इन रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया| इतना ही नहीं, उन्हें सिगरेट और भांग पीने की भी लत पड़ गई| एक दिन बिस्मिल भांग के नशे में चोरी कर रहे थे तभी उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया गया| उनकी उपन्यास और किताबें फाड़ दी गई लेकिन उनकी रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी| हालंकि, कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं इसे त्याग दिया|
बिस्मिल ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया| साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने उन्हें पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवाया| पुजारी के उपदेशों के कारण बिस्मिल पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का भी पालन करने लगे| अब उनका मन पढ़ाई में भी लगने लगा था और वह शीघ्र ही अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में आ गए| इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत के सम्पर्क में आये जिन्होंने उन्हें आर्य समाज के बारे में जानकारी दी|
जब बिस्मिल नौवी कक्षा के छात्र थे तब उनकी मुलाकात स्वामी सोमदेव से हुई| स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। वर्ष 1916 में जब बिस्मिल ने कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं. जगत नारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया| इस दौरान उनका कई महान हस्तियों के साथ परिचय हुआ|
वर्ष 1915 में अपने भाई परमानंद की फांसी की खबर सुनकर बिस्मिल ने ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा की| अब तलाश थी तो एक संगठन की जो उन्होंने पं. गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से खुद खड़ा कर लिया था| इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी| दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से बिस्मिल ने जून 1918 में दो तथा सितम्बर 1918 में कुल मिलाकर तीन डकैती डालीं, जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी|
26 से 31 दिसम्बर 1918 तक दिल्ली में लाल किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्लाकर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा दाल दिया किन्तु बिस्मिल की सूझ-बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं| मैनपुरी षडयंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर बिस्मिल थे किन्तु वह पुलिस के हाथ नहीं आये| 1 नबम्बर 1919 को मजिस्ट्रेट ने मैनपुरी षडयंत्र का फैसला सुनाया| जिन लोगों को सजाएँ दी थी उसमे मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी 1920 में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया| बिस्मिल पूरे दो वर्ष भूमिगत रहे| उनके दल के ही कुछ साथियों ने यह अफवाह फैला दी थी कि बिस्मिल पुलिस द्वारा चलाई गई गोली में मारे गए| इस दौरान उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास 'बोल्शेविकों की करतूत' लिखा| इतना ही नहीं भूमिगत रहते हुए उन्होंने अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक 'यौगिक साधन' का हिन्दी अनुवाद किया|
इसके बड़ा वह वापस आये और काम करने लगे| इसी बीच कलकत्ता में उनकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई|
सीआईडी ने सरकार को जब इस बात की जानकारी दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है तो पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये, जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चला कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है| शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद जान लिया|
ख़ुफ़िया तौर से इस बात की पुष्टि हो गई कि बिस्मिल, जो एचआरए का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था| इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार किया| ब्रिटिश सरकार ने चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला दिया और उन्हें 5 वर्ष की कैद व फांसी की सजा सुनाई|
पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को सरकारी गवाह बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी सभी बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। लखनऊ जेल में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रखा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया|
6 अप्रैल 1927 में विशेष सेशन जज ए. हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए यह लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है| हालंकि, इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ| फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी| स्पेशल जज जे.आर.डब्लू. बैनेट की अदालत में काकोरी कांस्पिरेसी का सप्लीमेण्ट्री केस दायर किया गया और 13 जुलाई 1927 को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी|
सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि क्रान्तिकारियों की ओर से के. सी. दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की| उन्होंने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की|
काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए 'मुल्जिमान' की जगह 'मुलाजिम' शब्द बोल दिया। फिर क्या था बिस्मिल ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी 'मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है, अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से, कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"
बिस्मिल के कहने का अर्थ था कि "मुलाजिम वह बल्कि मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वह तो राजनीतिक बन्दी हैं इसलिए उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं, मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज?"
इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं| 22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को 10 वर्ष की कड़ी कैद तथा फाँसी की सजा दी गई|
फाँसी की नई तिथि 19 दिसम्बर 1927 की सूचना गोरखपुर जेल में कैद बिस्मिल को दे दी गयी लेकिन वह इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा लिखने लगे| बिस्मिल ने जैसा अपनी आत्मकथा में लिखा भी, उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वह क्या-क्या करते? उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं लेकिन अमर होने से पहले वह अपने आत्मकथा के रूप में हमे एक ऐसी धरोहर सौंप गए जिसे आत्मसात कर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र की जड़े मजबूत की जा सकती है|
बहुत सुन्दर जानकारी...अमर शहीद को विनम्र नमन...
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