भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी व्रत किया जाता है। इस बार अनंत चतुर्दशी 27 सितंबर को पड़ रही है| इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। खास बात यह है कि इस दिन कोई शुभ मुहुर्त नहीं देखा जाता यानि यह पूरा दिन ही शुभ होता है और किसी भी समय कोई भी शुभ काम किया जा सकता है। पुराणों में बताया गया है कि इस दिन उदयव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन अंत ना होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का दिन है। पुराणों के अनुसार, जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज−पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनंत चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि−विधान से यह व्रत किया तथा अनंत सूत्र को धारण किया। अनंत चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।
अनंत चतुर्दशी की पूजन विधि-
अनंत चतुर्दशी के पूजन में व्रतकर्ता को प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए पूजा घर में कलश स्थापित करना चाहिए, कलश पर भगवान विष्णु का चित्र स्थापित करनी चाहिए इसके पश्चात धागा लें जिस पर चौदह गांठें लगाएं इस प्रकार अनन्तसूत्र(डोरा) तैयार हो जाने पर इसे प्रभु के समक्ष रखें इसके बाद भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्र की षोडशोपचार-विधिसे पूजा करनी चाहिए तथा ॐ अनन्तायनम: मंत्र क जाप करना चाहिए। पूजा के पश्चात अनन्तसूत्र मंत्र पढकर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने हाथों में अनंत सूत्र बांधना चाहिए और पूजा के बाद व्रत-कथा का श्रवन करें। अनंतसूत्र बांधने लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।
अनंत चतुर्दशी की कथा-
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’
सतयुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनंत भगवान की पूजा करते दिखाई पड़ीं। शीला ने अनंत−व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनंत सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में उसका घर धन−धान्य से पूर्ण हो गया। एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनंत सूत्र पर पड़ी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा− क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया− जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है।
परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनंत सूत्र को जादू−मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड़ दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन−हीन स्थिति में जीवन−यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनंत भगवान से क्षमा मांगने के लिए वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनंत देव का पता पूछते जाते थे।
बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनंत भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनंत देव का दर्शन कराया। भगवान ने मुनि से कहा− तुमने जो अनंत सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित के लिए तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनंत−व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी−समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनंत व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुनः प्राप्त कर लिया।
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