खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी





नई दिल्ली: भारत को अंग्रेजों से आज़ादी दिलाने के लिए 1857 में हुई आजादी की पहली क्रांति में बढ चढकर हिस्सा लेने वाली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्म आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था| लक्ष्मी बाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन प्यार से उन्हें 'मनु' कहा जाता था| देश में जब भी महिला सशक्तिकरण की बात होती है तो शायद सबसे पहला नाम इस वीरांगना का ही लिया जाता है| रानी लक्ष्मीबाई ना सिर्फ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक आदर्श हैं जो महिलाएं सोचती है कि वह कुछ नहीं कर सकती|





रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही बेहद साहसी थीं, और उन्होंने बचपन में न सिर्फ शास्त्रों की शिक्षा ली बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| समय पड़ने पर उन्होंने अपने अप्रतिम शौर्य से सबको परिचित भी करवाया| अपनी वीरता के किस्सों को लेकर वह किंवदंती बन चुकी हैं| हर किताब हर जुबान उनकी महान गाथा से ओत-प्रोत होती है| अँगरेज़ भी खुद को उनके शौर्य की प्रशंसा से नहीं रोक सके थे|





बचपन में ली शस्त्रों की शिक्षा





बचपन की मनु, शुरुआत से ही खुद को देश की आज़ादी के लिए तैयार कर रही थी| उन्होंने सिर्फ शास्त्रों की ही नहीं बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| छोटी सी उम्र में ही वह देशभावना के प्रति जागरुक हो गई थी, उनमें अपने देश को आजाद रखने की ललक थी| उन्हें गुड्डे गुड़ियों से ज्यादा तलवार से प्यार था| उन्होंने हर वो गुर सिखा जो किसी शासक के लिए जरूरी होता है| चाहे वो घुड़सवारी हो या तलवारबाजी, मनु का कोई जवाब नहीं था|





गंगाधर राव से विवाह बाद बनी झांसी की रानी





मात्र 12 साल की उम्र में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया| उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ, जिसके बाद बचपन की मनु, लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हो गई| घुड़सवारी और शस्त्र-संधान में निपुण महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं करती थीं| इससे उन्होंने महिलाओं के अंदर की शक्ति को उजागर किया और एक मजबूत महिला-सेना का निर्माण किया| लक्ष्मीबाई ने न सिर्फ खुशियों का स्वागत किया बल्कि दुखों को भी सहर्ष स्वीकार किया| पहले पुत्र की मृत्यु फिर पती ने भी प्राण त्याग दिए|





अंग्रेजों से लड़ते हुए मिली वीरगति





झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी| रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करते हुए एक स्वयंसेवक सेना का गठन शुरू किया| इस सेना में महिलाओं को भी शामिल किया गया और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया| 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया| रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया|





1858 के जनवरी माह में अंग्रेजों ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया| दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी और कालपी पंहुचकर तात्या टोपे से मिली| तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया|





17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गयीं| लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज़ ने टिप्पणी करते हुए लिखा रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं|





महिलाओं के लिए मिसाल





रानी लक्ष्मीबाई ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए न सिर्फ आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया बल्कि महिलाओं के सशक्त रूप को सबके सामने रखा| वहीँ, लक्ष्मीबाई महिलाओं के लिए एक मिसाल बनकर उभरीं| उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए देश उन्हें हमेशा याद करेगा|





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