जन्माष्टमी पर विशेष: इसी दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे भगवान श्रीकृष्ण



यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥




गीता की इस अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब
धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म
का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ| अत: जब असुर एवं राक्षसी
प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न
किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं| भगवान विष्णु इन समस्त
अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा| भगवान स्वयं जिस
दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप
में मनाते हैं| भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का यह उत्सव हिंदुओं का एक
महत्वपूर्ण त्यौहार है| भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का
अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि कोरोहिणी नक्षत्र
में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था| इस वर्ष जन्माष्टमी का
त्यौहार 18 अगस्त 2014 को स्मार्तों का व्रत है और वैष्णव संप्रदाय के
लोगों द्वारा मनाया जाएगा| भगवान श्रीकृष्ण इस वर्ष जन्ममाष्टमी पर 5240
साल के होने जा रहे हैं।



यदि ज्योतिषविदों की माने तो उनका कहना है कि इस बार द्वापर में भगवान
श्रीकृष्ण के जन्म के समय जिस तरह की नौ ग्रहों की स्थिति थी वैसे ही इस
वर्ष छह ग्रहों का संयोग बन रहा है। इसमें वर्षा ऋतु भाद्रपद कृष्ण पक्ष,
वृष राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य, सिंह राशि का बुध, कर्क राशि में
गुरु, राहु कन्या राशि के साथ केतु मीन राशि में मौजूद रहेगा। इसके अलावा
मध्य रात्रि वृषभ लग्न भी रहेगा। जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म
समय भी थी।



जन्माष्टमी पूजन विधि-



जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री
कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को
सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के मथुरा-वृन्‍दावन के
मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं।
कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम
का स्‍मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्‍यौहार को
'कृष्‍णाष्‍टमी' अथवा 'गोकुलाष्‍टमी' के नाम से भी जाना जाता है।



श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्‍ण की मूर्ति को
आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु
कृष्ण का श्रृंगार कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है और उन्हें भोग लगाया
जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा
करते हैं।



जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को
प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी
जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।
जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप
नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।



जन्माष्टमी की कथा-



एक बार इंद्र ने नारद जी से कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में
श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस
व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा प्राणियों को भोग व मोक्ष
भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर देवर्षि ने कहा- त्रेतायुग के
अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस
नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की
देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस
का वध करेगा।



नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का
विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न
आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को
सुनकर नारदजी ने कहा-हे इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक
ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस
प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस!
वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ
से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में
'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध
करेगा।



ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब
आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा।
ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से
पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे।
इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात
नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की
मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी
कंस की कथा का वर्णन कीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस
की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।



इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी
कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण
सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी
छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस
तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक
सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी ने उनके विलाप का कारण
पूछा| तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त
दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों
का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर
डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे
ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य
होगी।



देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती
हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना।
इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।



तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई
नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी
बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने
द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की
दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई
हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे
लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।



कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा
करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले
बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए
नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा
था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना
प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर
अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र
बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर
आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल
निःसंदेह प्राप्त होता है।



इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त
में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह
के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी
मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप
निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ
इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी
पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर
यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते
ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल
पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे
दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस
के बंदी गृह में पहुँच गए।



प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से
पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ।
द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ
देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित
किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में
गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान
पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और
अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।



उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में
उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो
वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ,
इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो
उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा
किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन
से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु
को प्राप्त हुई।



जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने
के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ
नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों
मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे
के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान
राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों
को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को
लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों
को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा
वध निश्चित है।



कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा ही होगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए।
घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे
श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी
के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक
दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार
पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद
पड़े।



कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया।
यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना
नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो
भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया,
दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल,
एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।



हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो
फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता
है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में
श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में
जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र!
पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो,
कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?



नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना
समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार
लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि
वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण
ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं
तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में
हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को
सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए
उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।



अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और
बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी
मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही
गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे
और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।



अब कालियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे
भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में
साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में
रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने
कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया
रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे
दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस
कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को
चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ
गए।



तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की
मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह
कालिया सर्प भी चला गया। इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण
प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने
विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने!
संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर
श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें।
नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग
में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से
श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र! कृष्ण एवं चाणूर का
मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे।
भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की
जनसभा के मध्य में देख रहे थे।



श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया।
चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी
भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख
रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर
और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को
बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर
कृष्ण से युद्ध करो।



हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान
किया, सुदर्शन चक्र को लेकर गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही
राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस
युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने
अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष
की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।



जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट,
अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध
कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों
को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को
प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां
उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद,
देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।



गोविंदा आला रे...



पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं
नृत्‍य किया जाता है। मथुरा व महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान
मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है,
इनसे दही व मक्‍खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका
अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने
के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय
यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के
साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे।
यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।


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